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________________ ५५० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ प्रायः सभी गच्छों की पट्टावलियों में क्रम संख्या एवं नामों में साधारण अथवा नगण्य अन्तर के अतिरिक्त पूर्णतः साम्यता दृष्टिगोचर होती है । इससे आगे की अंचलगच्छ की पट्टावलि निम्नलिखित रूप में उपलब्ध होती है । यथा : १. ३५. उद्योतनसूरि - इनसे बड़गच्छ का प्रादुर्भाव हुआ । ३६. सर्वदेवसूरि ३७. पद्मदेवसूरि ३८. उदयप्रभसूरि ३६. प्रभानन्दसूरि ४०. धर्मचन्द्रसूरि ४१. विनयचन्द्रसूरि ४२. गुणसागरसूरि ४३. विजयप्रभसूरि ४४. नरचन्द्रसूरि ४५. वीरचन्द्रसूरि ४६. जयसिंहसूरि ४७. आर्य रक्षितसूरि ( अपर नाम विजयचन्द्रसूरि ) अंचलगच्छ की सभी पट्टावलियों के अनुसार इन्हीं से विधि पक्ष, जो आगे चलकर अंचलगच्छ के नाम से विख्यात हुआ, की उत्पत्ति हुई । ४८. जयसिंहसूरि - इनके आचार्य काल में विधि पक्ष के श्रमण श्रमणी परिवार में अद्भुत वृद्धि हुई, जो इस प्रकार है, साधु २१२०, साध्वियां ११३०, प्राचार्य १२, वाचनाचार्य उपाध्याय २०, पंडित १७३, महत्तरा १ और प्रवृत्तिनियां ८२ हुए । ' ४९. धर्मघोषसूरि ५०. महेन्द्रसूरि - इन्होंने तीर्थमाला, शतपदी विवरण और गुरु गुरणषट्त्रिंशिका की रचना की । ५१. सिंहप्रभसूर ५२. अजित सिंहसूरि - विक्रम सम्वत् १३१६ में आचार्य पद और १३३६ में स्वर्गवास | श्री वीरवंश - विधि पक्ष पट्टावली, गाथा १०३ से १०५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only A www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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