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________________ मामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] अचलगच्छ । ५४६ चलाया होता तो सम्भवतः अाज अागमों में प्रतिपादित जैनधर्म का विशुद्ध स्वरूप विकृतियों के प्रचर आवरणों से ठीक उसी प्रकार प्राच्छन्न दृष्टिगोचर होता जिस प्रकार कि सावन भादवा की काली घटाओं में सूर्य । इन सब तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर प्रत्येक मुमुक्षु विज्ञ सहज ही यह अनुभव करने लगेगा कि क्रियोद्धार करने वाले महापुरुषों का जैन धर्मानुयायियों पर असीम उपकार है। नवांगी वृत्तिकार अभयदेवसूरि के शिष्य श्री जिनवल्लभसूरि ने खरतरगच्छ में भगवान् महावीर के पंचकल्याणकों में गर्भापहार को भी कल्याणक में सम्मिलित कर षड्कल्याणक मनाने की मान्यता चित्तौड़ नगर में प्रचलित की। इस मान्यता को लेकर जैनधर्म संघ में बड़ा विवाद चला और तपागच्छीय उपाध्याय धर्मसागर ने तो जिनवल्लभसूरि को उत्सूत्र प्ररूपक, संघबाह्य, तीर्थ बाह्य, आदि उपाधियों से अलंकृत कर दिया। खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावलि में उल्लिखित श्री जिनवल्लभसूरि के जीवन वत्त के पर्यालोचन से यह स्पष्टतः विदित होता है कि उन्होंने विक्रम सम्वत् ११६७ की अषाढ सुदि छठ के दिन चित्तौड़ में श्री अभयदेवसूरि के पट्टधर पद पर अधिष्ठित किये जाने से पर्याप्त समय पूर्व ही भगवान् महावीर के पट्कल्याणक मनाने की परिपाटी प्रचलित कर दी थी। इस विषय में केवल इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि जिस समय जिन वल्लभसूरि ने षट्कल्याणक की प्ररूपणा के साथ भगवान् महावीर का गर्भापहार कल्याणक मनाने हेतु चित्तौड़ के जिन मन्दिर में जाने का प्रयास किया तो उन्हें मन्दिर में प्रविष्ट तक न होने दिया गया। अन्ततोगत्वा एक गहस्थ के घर के ऊपरी खंड में चौबीस तीर्थंकरों का चित्रपट्टक रखकर जिनवल्लभ सूरि ने अपने भक्तों के साथ भगवान् महावीर का गर्भापहार नामक छठा कल्याणक मनाया । इसके विपरीत उन्हें अभयदेवसूरि के पट्ट पर अधिष्ठित करने का जो पट्ट महोत्सव किया गया वह चित्तौड़ दुर्ग की तलहटी में जिनवल्लभसूरि के उपदेश से उनके भक्तों द्वारा निर्मापित करवाये गये वीर विधि चैत्य में किया गया। अंचलगच्छोया पट्टावली श्रमण भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर सुधर्मा स्वामी से लेकर चौतीसवें पट्टधर तक खरतरगच्छ, तपागच्छ, अंचलगच्छ, अादि (उपकेशगच्छ को छोड़कर) १.. इदानी श्री देवभद्रसूरिभिः श्रीमदभयदेवसूरिपट्ट श्री जिनवल्लभ गणिनिवेशितः, सम्वत् ११६७ पापाढ़ शुदि ६, चित्रकूटे वीर विधि चैत्ये । -खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावलि, पृष्ठ २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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