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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
विसा, बहूहिं सीलव्वय गुणवेरमण पच्चक्खाण पोसहोववासेहिं चाउद्दसट्टमुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुन्नं पोसहं सम्म अणुपालेमारणा समणे निग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असण पाण खाइम साइमेणं वत्थ पडिग्गह कंबल पायपुछणेणपीढफलगसेज्जा संथारएणं प्रोसहभेसज्जेण य पडिलाभेमारणा अहापडिग्गहिएहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणा विहरंति ।।१०६॥"
स्वर्गीय पंन्यास श्री कल्याण विजयजी महाराज ने प्रतिमाधिकार के लेखक द्वारा दिये गये पाठ के सम्बन्ध में अपना अभिमत प्रकट करते हुए लिखा है :
"प्रतिमाधिकार के लेखक ने ऊपर जो तुगियानगरी के श्रावकों का वर्णन किया है, वह कहां का पाठ है यह कुछ नहीं लिखा। इसका कारण यही है कि सूत्र का नाम देने से सूत्र के पाठ के साथ इस पाठ का मिलान करके पाठकगण पोल खोल देते । दोनों पाठों का मिलान करके पाठकगरण देखें कि लेखक ने तुगियानगरी के श्रावकों के वर्णन में अपने घर का कितना मसाला डाला है ।'१
इस प्रकार के पाठों को देखकर इस प्रकार की आशंका उत्पन्न होती है कि चैत्यवासियों द्वारा रचित निगम नामक साहित्य जो वर्तमान काल में कहीं उपलब्ध नहीं होता, उन निगमों में से ही चैत्यवासियों से प्रभावित सुविहित कहे जाने वाले गच्छों के विद्वानों ने कुछ अंश या अधिकांश अथवा सारांश लेकर सुविहित परम्परा के कतिपय ग्रन्थों का निर्माण तो कहीं नहीं कर दिया।
इसी प्रकार वन्दन प्रकीर्णक (वन्दरण पइण्णय), पूजा परिणय, धर्म परीक्षा, विवाह चूलिया, बंग चूलिया आदि अनेक ग्रन्थों को देखने से स्पष्टतः यही प्रतीत होता है कि चैत्यवासियों के प्रभाव में आकर ही सुविहित परम्परा के विद्वानों ने इस प्रकार के अनेक नये ग्रन्थों का प्रणयन संकलन किया। इनमें से कतिपय ने तो इन अत्यन्त अर्वाचोन कृतियों को चतुर्दश पूर्वधर यशोभद्रसूरि द्वारा भद्रबाहु के शिष्य अग्निदत्त के समय २२ समुदाय के आदि पुरुषों की कल्पित उत्पत्ति का वर्णन करवाया है । विक्रम की बीसवीं शती की पूजा पयन्ना को चतुर्दश पूर्वधर प्राचार्य भद्रबाहु के नाम चढाकर लेखक ने पुरातन प्राचार्यों का वस्तुतः एक प्रकार से बड़ा अपमान किया है । इस प्रकार के कृत्रिम बनावटी अथवा नकली ग्रन्थों की सम्प्रदाय व्यामोह से रचना कर मध्ययुगीन विद्वानों, प्राचार्यों एवं साधुओं ने जैन वांङ्मय को एक प्रकार से विकृत कर सत्य के उपासकों को झमेले में डाल दिया, दिग्भ्रमित कर दिया।
यदि समय-समय पर जन-जन के समक्ष जैनधर्म के प्रागमिक स्वरूप को प्रकाशित करने के लिये साहसी क्रियोद्धारकों ने क्रियोद्धार का अभियान नहीं १. निवन्ध निनप, पृष्ठ ११४ य ११५
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