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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
अंचलगच्छ का अपर नाम अचल गच्छ अंचलगच्छ को कतिपय शताब्दियों पूर्व से ही 'अचल गच्छ' के नाम से भी अभिहित किया जाता रहा है। विधि पक्ष अपर नाम अंचलगच्छ को चालुक्यराज कुमारपाल के शासन काल के अन्तिम दिनों में अचल गच्छ के नाम से भी लोक में अभिहित किया जाने लगा। इस सम्बन्ध में मेरुतुगिया पट्टावली में एक बड़ा ही रोचक उल्लेख उपलब्ध होता है । मेरुतुगिया (संस्कृत) पट्टावली में एतद् विषयक उल्लेख का सारांश इस प्रकार है
_ "अणहिल्लपुर पट्टनाधीश चालुक्यराज कुमारपाल की आयु के अवसान से लगभग एक सप्ताह पूर्व विभिन्न गच्छों के श्रावकों ने, जो कि चौथ के दिन सांवत्सरिक पर्व मनाने के पक्षधर थे, कुमारपाल के समक्ष उपस्थित होकर कतिपय अन्य गच्छों के प्रति ईर्ष्यावशात् निवेदन किया-"राजन् ! आप स्वयं और हम सब चतुर्थी के दिन सांवत्सरिक पर्व मनाते आये हैं । अापके राज्य में अन्यान्य गच्छों के कतिपय ऐसे साधु भी विद्यमान हैं जो पंचमी के दिन सांवत्सरिक पर्व मनाने के पक्षधर हैं। पर्वाधिराज सांवत्सरिक पर्व आने ही वाला है। आप जैसे परमार्हत धर्मनिष्ठ राजा के राज्य में सांवत्सरिक पर्व के सम्बन्ध में इस प्रकार का धार्मिक मान्यता भेद वस्तुतः शोभास्पद नहीं है।"
"महाराजा कुमारपाल एक अटूट आस्थावान् जैन धर्मावलम्बी था। उसे भी पर्वाराधन विषयक मतभेद अनुचित प्रतीत हुआ। भलीभांति सोच-विचार के पश्चात् महाराजा कुमारपाल ने तत्काल एक राजाज्ञा प्रसारित की कि पंचमी के दिन सांवत्सरिक पर्व का अाराधन करने वाले साधु अाज से ही मेरे राज्य के पट्टनगर पाटण में निवास नहीं कर सकेंगे। अतः आज ही वे पाटण से बाहर अन्यत्र चले जांय ।”
"इस प्रकार की राजाज्ञा के प्रसारण के प्रश्चात् पंचमी के दिन सांवत्सरिक पर्व का अाराधन करने वाले विभिन्न गच्छों के साधु पाटण से विहार कर अन्यत्र चले गये।"
"विधिपक्ष (अंचलगच्छ) के महान् प्रभावक प्राचार्य जयसिंहसूरि भी उस समय पाटण में ही विद्यमान थे। उन्होंने पाटण में ही रहकर पंचमी के दिन सांवत्सरिक पर्व के आराधन के उद्देश्य से बड़ी ही सूझ-बूझ से काम लिया। उन्होंने अपने एक वाक्पटु एवं वाचाल श्रावक को महाराजा कुमारपाल के पास भेजकर यह सन्देश पहुंचाया--"हमारे गुरु पंचमी के दिन ही सांवत्सरिक पर्व का पाराधन करने वाले हैं। कुछ ही दिनों पूर्व उन्होंने आवश्यक सूत्र पर व्याख्यान देना प्रारम्भ कर दिया था । व्याख्यान
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