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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
खरतरगच्छ
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ओर से दिया गया पद नहीं था। यह तो वास्तविक सत्य-तथ्य से प्रभावित न्यायनिष्ठ राजा के अन्तःकरण से प्रकट हुए प्रशंसात्मक उद्गार थे। यही कारण है कि अभयदेवसूरि आदि इस परम्परा के आचार्यों ने अपनी कृतियों की प्रशस्तियों में खरा अथवा खरतर इन शब्दों का अपनी परम्परा के विरुद के रूप में प्रयोग नहीं किया।
दुर्लभराज द्वारा खरे के रूप में प्रशंसित परम्परा कालान्तर में खरतरगच्छ (न केवल खरे ही अपितु खरे से भी उच्चतर कोटि के खरे) के नाम से लोक में प्रसिद्ध हुई।
वर्द्धमानसरि द्वारा प्रचलित की गई परम्परा, चाहे उसे खरागच्छ अथवा खरतरगच्छ के नाम से अभिहित किया जाय, वस्तुतः जिन प्ररूपित धर्म और विशुद्ध श्रमरण धर्म के खरे स्वरूप को जन-जन के समक्ष प्रकट करने में सफल सिद्ध हुई।
आज भारत के विभिन्न प्रदेशों में जैन धर्म और श्रमणाचार का विशुद्ध स्वरूप कहीं अधिक कहीं कम दृष्टिगोचर हो रहा है वस्तुत: वह वर्द्धमानसूरि जैसे प्राचार्यों की ही देन है। यदि वर्द्धमानसूरि ने चैत्यवासी परम्परा के विरुद्ध समग्र धार्मिक क्रान्ति का शंखनाद नहीं पूरा होता तो आज आगमों के, जैनधर्म के सच्चे स्वरूप के और सच्चे श्रमणों के दर्शन तक दुर्लभ हो जाते ।
वर्द्धमानसूरि ने आमूलचूल क्रियोद्धार अथवा महान् धर्म क्रान्ति का सूत्रपात करते समय प्रत्येक जैन धर्मावलम्बी को एक यही आधारभूत मूलमन्त्र दिया कि प्रत्येक जैन के लिये जिनेश्वर प्रभु द्वारा प्रणीत केवल आगम ही सर्वोच्च सर्वमान्य
और सर्वोपरि प्रामाणिक हैं, न कि किसी प्राचार्य के द्वारा बनाये गये कोई ग्रन्थ । क्योंकि जैन धर्म जिनेश्वर द्वारा संस्थापित है, न कि किसी प्राचार्य के द्वारा । प्रत्येक जैन के लिये किसी भी प्राचार्य का केवल वही निर्देश मान्य हो सकता है जो शत प्रतिशत आगम वचन के अनुरूप अर्थात् आगम पर आधारित हो।
कालान्तर में इस महान् क्रान्तिकारिणी श्रमण परम्परा पर भी काल प्रभाव से चैत्यवासियों तथा लोकैषणा से अभिभूत गच्छों अथवा धर्मसंघों के सम्पर्कसंसर्ग का प्रभाव पड़ा और यह परम्परा भी केवल आगमों के स्थान पर पंचांगी अर्थात् प्रागम, नियुक्ति, वृत्ति, भाष्य और चूर्षिण को प्रामाणिक मानने लगी। वस्तुतः यही जैन धर्मसंघ में विचारभेद, मान्यताभेद, मतभेद, साम्प्रदायिक विभेद, विद्वेष, वैमनस्य आदि का मूल कारण है। आज यदि प्रत्येक जैन धर्मानुयायी पंचांगी के ऊहापोह में न पड़कर केवल आगमों को ही अन्तिम रूप से परम प्रामाणिक मानने लग जाय तो जैन धर्मसंघ में सभी प्रकार के मतभेद सम्प्रदायभेद गच्छभेद सदासर्वदा के लिए स्वतः ही समाप्त हो जायें।
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