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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
अंचल गच्छ
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श्रात्मा अवतरित हुई । अपना अधिकांश समय धर्माराधन में व्यतीत करती हुई देढ़ी पूर्ण संयम और सावधानीपूर्वक अपने गर्भस्थ शिशु का संवर्द्धन करने लगी । गर्भकाल पूर्ण होने पर श्रेष्ठिपत्नी देढ़ी ने एक तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया । गर्भाधानकाल में देढ़ी ने गोदुग्धपान का स्वप्न देखा था इस कारण माता-पिता ने पुत्र का नाम गोदुहकुमार रखा ।
मेरुतु गीया पट्टावली के इस उल्लेख से दो तथ्य स्पष्ट रूप से प्रकाश में आते हैं। पहला तो यह कि देवद्विगरि क्षमाश्रमण के स्वर्गारोहण के पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर के चतुर्विध धर्मसंघ में शिथिलाचार का प्रसार प्रारम्भ हुआ और ज्यों-ज्यों काल बीतता गया, त्यों-त्यों वह उत्तरोत्तर बढ़ता गया । दूसरा तथ्य यह प्रकाश में आता है कि चतुविध धर्मसंघ में व्याप्त शिथिलाचार के चरम सीमा पर पहुंच जाने के समय भी आगमानुसार विशुद्ध धर्म के मर्मज्ञ और उसके अनुरूप आचरण करने वाले भव्य प्रारणी न केवल श्रमरण - श्रमणी समूह में ही अपितु श्रावक-श्राविका वर्ग में भी विद्यमान रहे । सद्धर्म का आचरण करने वाले और ग्रागमानुसारी सद्धर्म के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा-विश्वास और आस्था रखने वालों का नितान्त अभाव प्रारम्भ से लेकर अद्यावधि कभी नहीं रहा ।
भावसागरसूरि ने देवगिरिण क्षमाश्रमण के पश्चात् हुए प्राचार्यों के नाम एवं क्रम देते हुए उद्योतनसूरि द्वारा बड़गच्छ की स्थापना का उल्लेख किया है । तदनन्तर उद्योतनसूरि के पट्टधर सर्वदेवसूरि और सर्वदेवसूरि के पश्चात् क्रमशः पद्मदेवसूरि, उदयप्रभसूरि, प्रभानन्दसूरि, धर्मचन्दसूरि, सुविनयचन्द्रसूरि, विजयप्रभसूरि, नरचन्द्रसूरि वीरचन्द्रसूरि और जयसिंहसूरि तक बड़गच्छ के आचार्यों के नाम दिये हैं । तदनन्तर जयसिंहसूरि के पट्टशिष्य विजयचन्द्र का परिचय देते हुए लिखा हैं :
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"आबू पर्वत के पास दन्ताणी नामक ग्राम में प्राग्वाट्वंशाभरण द्रोण नामक मंत्री रहता था। उस द्रोण मंत्री की डेढी नाम की धर्मपत्नी की कुक्षि से विजयचन्द्र का जन्म हुआ । विजयचन्द्र ने संसार से विरक्त हो बड़े हर्षोल्लास के साथ संयम ग्रहण किया । प्रतीव तीक्ष्ण बुद्धि साधु विजयचन्द्र ने अपने गुरु के पास बड़ी निष्ठा एवं लगन से आगमों का अध्ययन प्रारम्भ किया और स्वल्पकाल में ही ग्रागम मर्मज्ञ विद्वान् बन गये । आगमों के अध्ययनकाल में प्रागमवचनों पर चिन्तन मनन करते समय साधु विजयचन्द्र ने स्पष्ट देखा कि आगमों में धर्म का और श्रमणों के प्रचार का जिस प्रकार का स्वरूप निर्दिष्ट किया गया है, उस प्रकार का श्रमणाचार आज कहीं दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है एवं दुःषमकाल के प्रभाव से अनेषणीय अशन-पान ग्रहण करने वाले और सावद्य कार्यों में मन, वचन एवं कर्म प्रवृत्ति करने वाले श्रमण श्रमणीवर्ग की क्रियाएं वस्तुतः आगमों से विपरीत एवं प्रति शिथिल हो गई हैं ।"
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