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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
सूविख्यात ऋद्धिशाली कपदि अर्थात् कदि नाम से विख्यात कोटिपति अथवा कोडियों का व्यापारी विजयचन्द्रसूरि के उपदेश को सुनकर प्रबुद्ध हुआ और वह अपने पारिवारिक-जनों के साथ उनका श्रद्धालु श्रावक बन गया। समयश्री नाम की उसकी पुत्री ने एक करोड़ टंक मूल्य के अलंकारों एवं विपुल सम्पदा तथा गृह-द्वारपरिजन आदि का परित्याग कर अपनी २५ सखियों के साथ विजयचन्द्रसूरि से श्रमणी-धर्म की दीक्षा ग्रहण की। विजयचन्द्रसूरि के परम प्रेरणाप्रदायी उपदेशों से अनुप्राणित हो विउणपनगर के निवासी अनेक भव्यों ने पंच महाव्रतों की भागवती दीक्षाएं ग्रहण की और बहुत बड़ी संख्या में वहां के निवासियों ने श्रावकधर्म अंगीकार किया।
इस प्रकार (आचार्यपद पर अधिष्ठित होने के अनन्तर रक्षितमूरि के नाम से विख्यात) विजयचन्द्रसूरि विभिन्न प्रदेशों के ग्राम, नगर, पुर, पत्तन आदि में धर्म का प्रचार करते हुए विचरण करने लगे। उनके प्रभावपूर्ण उपदेशों से साधु, साध्वियों, श्रावकों एवं श्राविकाओं की संख्या में बड़ी ही उत्साहवर्द्धक अभिवृद्धि हुई।
__ अपने विशाल शिष्यपरिवार के साथ विभिन्न क्षेत्रों में धर्मप्रचार करते हुए विजयचन्द्ररि एक समय स्थिरपद्र नगर में पधारे । वहां के निवासियों की अनुनयविनयपूर्ण प्रार्थना सुनकर उन्होंने वहीं वर्षावास किया। उन दिनों कोंकरण प्रदेश के सोपारक नामक नगर में दाहड़ नाम का एक समृद्धिशाली श्रेष्ठ रहता था। उसकी धर्मनिष्ठा पतिपरायणा पत्नी नेटी ने एक रात्रि में पूर्णिमा के पूर्णचन्द्र के स्वप्नदर्शन के साथ गर्भधारण किया । गर्भकाल की परिसमाप्ति के पश्चात् श्रेष्ठिपत्नी 'नेटी' ने एक पुत्ररत्न को जन्म दिया । उस शिशु का नाम जासिग (जयसिंह) रखा गया। जासिग ने विद्याध्ययन पूर्ण होते-होते किशोर वय को पार कर युवावस्था में पदार्पण किया । शैशव काल से ही बालक जासिग अपनी धर्मपरायणा माता के साथ साधु-साध्वियों के दर्शन-वन्दन एवं प्रवचन श्रवण के लिये जाया करता था। एक दिन उसने गुरुमुख से जम्बूस्वामी का चरित्र सुना। आर्य जम्बूस्वामी के उत्कृष्ट त्याग से अोतप्रोत प्रेरणाप्रदायी परम पावन जीवनवृत्त को सुनते ही जासिग का मन वैराग्य से अोतप्रोत हो गया । प्रबुद्ध किशोर जासिग ने येन-केन प्रकारेण माता-पिता की अनुमति प्राप्त कर सुखदत्त नामक अपने एक मित्र के साथ · अनहिल्लपुरपत्तन की अोर प्रस्थान किया। वहां चालुक्य नरेश जयसिंह से उसकी भेंट हुई । वैराग्य के प्रगाढ़ रंग में रंगे जासिग के विचारों से अवगत हो राजाधिराज जयसिंह ने उसे स्थिरपद्रपुर में विराजमान विजयचन्द्रसूरि की सेवा में उपस्थित होने का परामर्श दिया। तदनुसार जासिग स्थिरपद्रपुर में प्राचार्यश्री विजयचन्द्रसूरि के उपाश्रय में पहुंचा। जिस समय जासिग अथवा जैसिग उपाश्रय में पहुंचा, उस समय उपाश्रय में कोई भी श्रमण नहीं था । अतः उसने सूरिवर के सिंहासन पर रखे दशवैकालिक सूत्र को देख उसे पढ़ना प्रारम्भ कर
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