________________
५३६ ]
| जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
वि० सं० ६६८ में पाटण पर चालुक्य राजवंश का प्रभुत्व हो जाने के अनन्तर भी उस वंश के प्रथम महाराजा मूलराज के शासन काल से लेकर उस वंश के चौथे महाराजा दुर्लभ सेन अथवा दुर्लभराज के राज्यकाल के अन्तिम वर्ष से पूर्व विक्रम सं० १०७६-८० तक चैत्यवासियों को पाटण राज्य में एकाधिकार के रूप में वे सभी प्रकार की सुविधाएं यथावत् प्राप्त होती रहीं। इस प्रकार वि० सं० ८०२ से लेकर वि० सं० १०८० तक चैत्यवासियों का विशाल गुर्जर राज्य में कुल मिला कर २७८ वर्ष पर्यन्त पूर्ण वर्चस्व रहा। वनराज चावड़ा द्वारा प्रसारित की गई राजाज्ञा के माध्यम से संस्थापित वह मर्यादा पाटण के विशाल राज्य में पौने तीन शताब्दी से भी अधिक समय तक अक्षुण्ण रूप से चलती रही, जिसके अनुसार चैत्यवासियों के अतिरिक्त किसी भी जैन परम्परा के साधु-साध्वियों के लिये पाटण राज्य में प्रवेश तक निषिद्ध था । निरन्तर २७८ वर्ष तक प्राप्त इस सुविधा के कारण चैत्यवासी संघ एक अतीव शक्तिशाली संघ के रूप में जन-जन के मन और मस्तिष्क पर छा गया था । चैत्यवासियों द्वारा प्रचलित किये गये भौतिक आडम्बरों से प्रोत-प्रोत धार्मिक विधिविधान अत्यन्त लोकप्रिय बन चुके थे। अपने दैनिक जीवन में आबाल-वृद्ध सभी जैनधर्मानुयायी चैत्यवासियों द्वारा प्रचलित किये गये आचार-विचार, विधि-विधान, रीति-नीति आदि के पूर्ण-रूपेण अभ्यस्त हो चुके थे । धर्म के विशुद्ध आगमिक मूल स्वरूप को, आगमों में प्रतिपादित श्रमणचर्या को गुजरात आदि उन सभी राज्यों के लोग भूल चुके थे, जहां पर कि सुदीर्घ काल तक चैत्यवासियों का धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में एकाधिपत्यपूर्ण वर्चस्व रहा। इस सबके परिणामस्वरूप जनजीवन में रूढ़ हुई विकृतिपूर्ण मान्यताओं एवं अनागमिक आचार-विचार, विधि-विधान आदि को समाप्त करना, उनका समूलोन्मूलन करना एक अति दुष्कर ही नहीं अपितु असाध्य कार्य बन गया था।
इस सब के अतिरिक्त विधि पक्ष की स्थापना से लगभग ६० वर्ष पूर्व वर्द्धमानसूरि और जिनेश्वरसूरि द्वारा की गई धर्मक्रान्ति से चैत्यवासी पूर्णतः चौकन्ने, सजग अथवा सावधान हो चुके थे । अपनी परम्परा के विरुद्ध उठे छोटे-बड़े किसी भी प्रकार के विरोध को अंकुरित होने से पूर्व ही कुचल डालने के लिये वे सदा कटिबद्ध रहने लग गये थे। चैत्यवासियों के अतिरिक्त अन्यान्य गच्छों के विरोध एवं प्रकोप का भाजन भी नवोदित परम्परा को बनना पड़ता था।
ऐसी स्थिति में पूर्णतः आगमों के अनुरूप धर्म के स्वरूप और श्रमणाचार की पुन: प्रतिष्ठापना हेतु सम्पूर्ण धर्मक्रान्ति का लक्ष्य होते हुए भी रक्षितसूरि आदि क्रियोद्धारकों को अपनी धर्मक्रान्ति तथा क्रियोद्धार को कतिपय अंशों में ही सीमित करना पड़ा । यही कारण था कि आगमों में प्रतिपादित जैन धर्म की मूल मान्यताओं को धर्मसंघ में यथार्थरूपेण पुनः प्रतिष्ठापित करने की प्रान्तरिक अभिलाषा के होते हए भी प्राय: वे सभी क्रियोद्धार करने वाले महापुरुष सम्पूर्ण क्रान्ति का अपनी इच्छा के अनुरूप क्रियान्वयन करने में एक प्रकार से अन्ततोगत्वा असफल ही
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org