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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
अंचलगच्छ
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भी जैनसंघ में प्रविष्ट हुई विकृतियों को दूर करने के उद्देश्य से धर्मचेतना और जागृति का शंखनाद पूरा था तथा लगभग १० वर्ष तक अपने विरोधी गच्छों द्वारा चारों ओर से प्रस्तुत किये गये विरोध के परिणामस्वरूप उनके साथ संघर्षरत रहने के पश्चात् वि० सं० ११५६ में अन्ततोगत्वा विधिवत् पौर्णमिक गच्छ की स्थापना की । वर्द्धमानसूरि, रक्षितसूरि, चन्द्रप्रभसूरि आदि इन सभी शासनहितैषी आचार्यों का प्रारम्भ में एक सर्वांगपूर्ण समग्र धर्मक्रान्ति करने का ही उद्देश्य रहा, किन्तु चतुर्विध संघ में विकृतियों की जड़ इतनी अधिक गहरी पहुंच गई थी कि विकृतियों का मूलोच्छेदन कर उनमें आमूलचूल परिवर्तन के साथ एकरूपता लाना असम्भव सा हो चुका था। अतः धर्म के वास्तविक स्वरूप को पुनः प्रतिष्ठापित करने का उन प्राचार्यों का स्वप्न साकार नहीं हो पाया और उनके द्वारा की गई धर्मक्रान्तियां एक परिधि तक ही सीमित रह गई।
विधिपक्ष (अंचलगच्छ) के जन्मदाता रक्षितसूरि ने भी एकमात्र आगमों के ही आधार पर समग्र धर्मक्रान्ति के दृढ़ संकल्प के साथ विधिपक्ष (आगमानुसारी पक्ष) की स्थापना की थी। किन्तु वे भी इस धर्मक्रान्ति में अपने लक्ष्य के अनुरूप आगे नहीं बढ़ सके। इसका कारण यह था कि वीर निर्वाण की एक सहस्राब्दि के पश्चात् पनपी चैत्यवास और शिथिलाचार की परम्परा उस समय तक जन-जन के जीवन में घुल-मिल सी गई थी। वस्तुतः इस प्रकार के क्रियोद्धारों के माध्यम से की गई धर्मक्रान्तियां तत्कालीन धर्मसंघ में सर्वत्र व्याप्त शिथिलाचार के विरुद्ध थीं और उस शिथिलाचार की जननी, सूत्रधार अथवा प्रतीक थी चैत्यवासी परम्परा । इस दृष्टिकोण से इस प्रकार के क्रियोद्धारों अथवा धर्मक्रान्तियों को चैत्यवासी वस्तुतः अपने विरुद्ध प्रबल अभियान समझते थे। शिथिलाचार को जन्म देने वाली, श्रमणाचार के मूल स्वरूप को सर्वांगीण रूपेण तथा धर्म के मूल रूप को विकृत करने वाली चैत्यवासी परम्परा का प्रभाव सम्पूर्ण गुजरात, सौराष्ट्र, मेवाड़, मारवाड़, मालवा आदि प्रदेशों में सर्वत्र घर कर चुका था। इन प्रदेशों में राज्याश्रय प्राप्त हो जाने के परिणामस्वरूप चैत्यवासियों का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया।
पाटण के विशाल साम्राज्य के संस्थापक वनराज चावड़ा और उसके उत्तराधिकारी ७ चापोत्कटवंशीय राजाओं ने वि० सं० ८०२ से वि० सं० १६८ पर्यन्त कुल मिला कर १६६ वर्ष तक चैत्यवासियों को अपना धर्मगुरु-राजगुरु मान कर उन्हें सर्वाधिक सम्मान प्रदान किया। अपने धर्मगुरु के संघ-चैत्यवासी संघ को दृढ़ से दृढ़तम बनाने हेतु चैत्यवासी संघ को सभी प्रकार की सुविधाएं प्रदान करने के साथ-साथ वनराज चावड़ा ने अपने सम्पूर्ण राज्य में इस प्रकार की राजाज्ञा प्रसारित करवा दी कि चैत्यवासी प्राचार्य की अनुमति के बिना उनके राज्य की सीमाओं में अन्य किसी भी परम्परा के जैन श्रमण-श्रमणीवर्ग विचरण तो दूर प्रवेश तक न कर पायें ।
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