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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
किया है, वस्तुतः इस नाम के मुनि अथवा प्राचार्य का नाम अंचलगच्छ की पट्टावलियों में खोजने पर भी कहीं उपलब्ध नहीं होता । इस प्रकार की स्थिति में उपाध्याय धर्मसागर द्वारा किये गये इस उल्लेख एवं उक्त सम्पूर्ण कथानक की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में विज्ञ पाठक स्वतः सहज ही निर्णय कर सकते हैं ।
मेरुतु 'गसूरि के उल्लेखानुसार वस्तुस्थिति इससे पूर्णतः विपरीत एवं भिन्न ही प्रतीत होती है, जो इस प्रकार है :
"मेरुतु सूरि ने अपनी रचना "लघु शतपदी" में उल्लेख किया है कि नारणकगच्छ के सर्वदेवसूरि से बड़गच्छ प्रचलित हुआ। बड़गच्छ में अनुक्रमश: जयसिंहसूरि नामक एक पट्टेधर हुए । जयसिंहसूरि के शिष्य विजयचन्द्र ने संघ में व्याप्त शिथिलाचार से चिन्तित हो क्रियोद्धार का निश्चय किया । जयसिंहसूरि ने विजयचन्द्र मुनि को उपाध्याय पद प्रदान किया किन्तु उन्होंने ( विजयचन्द्र मुनि ने ) क्रियो - द्धार करने का दृढ़ निश्चय कर लिया । इसलिये अपने गुरु एवं गच्छ का परित्याग कर वे अपने तीन साथी मुनियों के साथ स्वतन्त्र रूप से पृथक् ही विचरण करने लगे । एक दिन विहारक्रम से विजयचन्द्र मुनि अपने मामा शीलगुणसूरि के पास पहुंचे, जो पौरिगमिक गच्छ के आचार्य थे । विजयचन्द्र मुनि ने अपने मामा आचार्य शीलगुणसूरि की निश्रा में रहते हुए आगमों का अध्ययन किया । अध्ययन सम्पन्न होने के अनन्तर ग्रागमों में निष्णात अपने भागिनेय विजयचन्द्र मुनि को शीलगुणसूरि ने पौरिणमिक गच्छ के प्राचार्यपद पर अधिष्ठित करने का विजयचन्द्र के समक्ष प्रस्ताव रखा । भवभीरु मुनि विजयचन्द्र ने इस डर से कि प्राचार्यपद पर अधिष्ठित होने के अनन्तर मालारोपण आदि सावद्य कार्यों में लिप्त होना पड़ेगा, अपने मामा के प्रस्ताव को तत्काल स्पष्ट रूप से अस्वीकार करते हुए कहा - " मैं तो उपाध्याय पद पर ही ठीक हूं ।"
“इस घटना के कतिपय दिनों पश्चात् विजयचन्द्र मुनि ने अपने तीन साथी साधुयों के साथ अन्यत्र विहार कर दिया और वे पूर्ववत् विभिन्न क्षेत्रों में स्वतन्त्र रूप से विचरण करने लगे । तत्पश्चात् मुनि विजयचन्द्र ने नवीन ७० बोलों के साथ आगमानुसारी अपनी समाचारी की घोषणा पूर्वक विधिपक्ष (अंचलगच्छ ) की स्थापना की ।"
इस सबके अतिरिक्त बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि प्रार्य रक्षितसूरि नामक किसी चैत्यवासी प्राचार्य द्वारा नरसिंह मुनि को ग्रंचलगच्छ के प्राचार्यपद पर अधिष्ठित किये जाने की जो बात उपाध्याय धर्मसागर ने अपने ग्रन्थ प्रवचन परीक्षा में, अंचलगच्छ की उत्पत्ति विषयक प्रकरण की गाथा संख्या ६ में लिखी है, उसका नाम मात्र के लिये भी न तो कोई प्राधार सम्पूर्ण जैन वांग्मय में अन्यत्र उपलब्ध होता है और न कहीं चैत्यवासी परम्परा के यत्किंचित् उपलब्ध साहित्य में
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