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सामान्य श्रृंतधर काल खण्ड २ ]
अंचलगच्छ
[ ५२५ "२१२० साधु, ११३० साध्वियां, १२ आचार्य, २० उपाध्याय-वाचनाचार्य, १७३ पण्डित, १ महत्तरा (कपदि श्रेष्ठि की पुत्री) समयश्री और ८२ प्रवति नियां।"
अपने इस विशाल श्रमण-श्रमणी परिवार के साथ जयसिंहसूरि विहारक्रम से अणहिल्लपूर पत्तन में पहुंचे। वहां उस समय महाराजा कुमारपाल शासन कर रहे थे। प्राचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि के उपदेश से प्रबुद्ध चालुक्यराज महाराज कुमारपाल जिनशासन के प्रगाढ़ श्रद्धानिष्ठ भक्त एवं श्रावकाग्रणी बन गये । कुमारपाल ने अपने समस्त राज्य में अमारि की घोषणा करवा दी और वे सब जीवों पर बड़ी तत्परता से दयाभाव रखते हुए देश विरति अर्थात् श्रावकधर्म का पालन करते थे। एक समय महाराजा कुमारपाल मुहपत्ति (मुखवस्त्रिका) से प्राचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि को वन्दन कर रहे थे। उसी समय विधिपक्ष का श्रावकाग्रणी कपर्दि भी आचार्यश्री हेमचन्द्र की सेवा में उपस्थित हुआ और उत्तरासंग से उन्हें वन्दन करने लगा । उत्तरासंग से वन्दन करते हुए कपर्दि श्रावक को देख कर महाराजा कुमारपाल को बड़ा आश्चर्य हुआ। राजा ने हेमचन्द्रसूरि से प्रश्न किया :-"भगवन् ! गुरुवन्दन का यह आश्चर्यकारी नया रूप कैसा ?"
प्राचार्यश्री हेमचन्द्र ने उत्तर में कहा-"राजन् ! जिनेश्वर भगवान् के वचन के अनुरूप यह गुरुवन्दन की मुद्रा है और तुम्हारी गुरुवन्दन की यह मुद्रा परम्परागत मुद्रा है।''
राजा के प्रश्न का उत्तर देने के पश्चात् आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि ने विजयचन्द्रसूरि की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए महाविदेह क्षेत्र की सीमा नगरी के समवसरण में सीमन्धर जिनेश्वर द्वारा की गई विजयचन्द्रसूरि की प्रशंसा की तथा चक्रेश्वरी देवी द्वारा उन्हें (विजयचन्द्र मुनि को) समवसरण में घटित उस घटना से अवगत कराने तथा विशुद्ध धर्म की पुनः प्रतिष्ठापना के सम्बन्ध में प्रेरणा दिये जाने आदि की बात सुनाई और अन्त में कहा- "आगमों में प्रदर्शित पथ पर चलने के दृढ़ संकल्प के साथ विजयचन्द्रसूरि ने विधिमार्ग की स्थापना की है।"
यह सब वृत्तान्त सुनाने के अनन्तर महाराजा कुमारपाल ने 'विधिपक्ष' का • नाम अंचलगच्छ अथवा अंचलगण रखा ।'
१. अह अन्नया नरेशो, मुहपत्तीए करेइ कीइकम्म ।
विहिपक्ख कवडिसावय, उत्तरसगेण तं वियरइ ॥१०६। एवं किमिइ निवेणय पुट्ठो सिरि हेमसूरि वच्चेइ । जिणवयणेसा मुद्दा, परम्परा एस तुम्हारणं ।।११०॥
-श्री वीस्वंशपट्टावली। २. पच्छा निवेण तस्स वि, अंचलगण नाम सिरिपहेण कयं ।।११३।।
- श्री वीरवंश पट्टावली
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