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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
इन सब बातों पर विचार कर साधु विजयचन्द्र ने अपने गुरु जयसिंहसूरि से निवेदन किया-"भगवन् ! आज का श्रमण श्रमणीवर्ग आगमों में उल्लिखित सर्वज्ञ वाणी से विपरीत पाचरण कर उन्मार्गगामी क्यों हो रहा है ?"१
जयसिंहसूरि ने उत्तर दिया-"वत्स ! अाज के लोगों में प्रमाद का बाहल्य हो गया है। इसके लिये किया ही क्या जा सकता है ? अपने गच्छ में सदा स्थिर बनाये रखने के लिये जयसिंहसूरि ने अपने शिष्य विजयचन्द्र को उपाध्याय पद प्रदान कर दिया। किन्तु पापभीरु आत्मार्थी विजयचन्द्र को उस प्रकार के शिथिलाचार वाले गच्छ में रहना किंचिन्मात्र भी रुचिकर नहीं लगा। वह अपने तीन साथी साधुओं के साथ क्रियोद्धार करने का दृढ़ संकल्प लिये बड़गच्छ और अपने गुरु से पृथक् हो कर वहां से किसी अन्य स्थान के लिये विहार कर गया। पांच समिति, तीन गुप्ति के साथ अप्रमत्त भाव से त्रिकरण, त्रियोग से विशुद्ध क्रिया का पालन करता हुआ साधु विजयचन्द्र विहारक्रम से लाट देश में पहुंचा। मध्याह्नवेला में वे साधु मधुकरी के लिये गृहस्थों के घरों की ओर बढ़े। अनेक गृहस्थों के घरों में भिक्षार्थ भ्रमण करने के अनन्तर भी उन साधुओं को कहीं किसी भी गृहस्थ के यहां से किंचिनमात्र भी निर्दोष आहारपानीय प्राप्त नहीं हा। वे साध बिना किसी प्रकार की निराशा अथवा उद्वेग के समभावपूर्वक पावागिरि के शिखर की ओर बढ़े। शिखर पर बने जिनमन्दिर में उन्होंने जिनेन्द्र प्रभु को वन्दन-नमन के पश्चात् संलेखना की आकांक्षा से एक मास के निर्जल-निराहार तप का प्रत्याख्यान कर लिया इस प्रकार घोर तपश्चरण के साथ आत्मचिन्तन में लीन रहते हुए विजयचन्द्रमुनि और उनके साथी साधुओं को लगभग एक मास का समय व्यतीत होने आया।
पट्टावलीकार ने आगे लिखा है -उधर विदेह क्षेत्र के पुष्कलावती विजय में श्री सीमंधर स्वामी ग्रामानुग्राम विचरण कर रहे थे। सीमा नगरी में देवों ने समवसरण की रचना की। समवसरण में एकत्रित चतुर्विध धर्मसंघ एवं श्रद्धालु ससुरासुर-नरेन्द्रादि की सुविशाल धर्म परिषद् के समक्ष श्री सीमंधरस्वामी ने साधु विजयचन्द्र की कठोर निरतिचार श्रमणचर्या, क्रियापात्रता और धर्म के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा आदि उनके गुणों की प्रशंसा करते हुए फरमाया :-"आज जम्बूद्धीपस्थ
१. दुःसह कालवसेण य, अणेसणिज्जेण असणपारणेण ।
सावज्जकुणंताणं, साहूणं कुब्बरा किरिया ॥४०।। तं दटुं सोऽप्पभगइ, समहिज्जंतोवि सुत्तमायारं । भयवं ! कि विवरीयं, दीसइ उम्मग्ग करणाप्रो ।।४१।।
-श्री वीरवंशपट्टावलि अपर नाम विधिपक्ष गच्छ पट्टावली-(हस्त
लिखित प्रति प्राचार्यश्री विनय चन्द्र ज्ञान भण्डार जयपुर में
इतिहास सामग्री की जिल्द सं० १ में विद्यमान है ।)
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