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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] अंचलगच्छ
[ ५१३ अर्थात् तीर्थ संचालन की प्रक्रिया में एकता के सूत्र से विहीन अथवा धर्मपथ का मार्गदर्शन करने वाले सर्वज्ञ-प्रणीत सूत्रों से रहित हो गया था।
प्रार्यरक्षितसूरि द्वारा किये गये क्रियोद्धार के समय संघ में व्याप्त घोर शिथिलाचार के और धर्मसंघ की दयनीय स्थिति के सम्बन्ध में जो विवरण प्राचार्य भावसागरसूरि ने श्री वीरवंश पट्टावलि में प्रस्तुत किया है, उसकी पुष्टि करने वाले अनेकानेक उल्लेख जैन वांग्मय में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते है । मेरुतुगसूरि की प्रसिद्ध रचना मेरुतुगीया पट्टावलि में चारों ओर व्याप्त शिथिलाचार के सम्बन्ध में जो मामिक बातों का उल्लेख किया गया है, वह वस्तुत: ऐतिहासिक दृष्टि से बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। मेरुतुगीया पट्टावलि में प्रार्य रक्षितसूरि के वंश, माता, पिता, जाति आदि का परिचय देते हुए लिखा गया है-“पाबू पर्वत के पास दंत्राणी नामक एक ग्राम में पोरवाड़ जाति के द्रोण नामक एक प्रतिष्ठित व्यापारी रहते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम देढ़ी था। वह दम्पति बड़ा धर्मनिष्ठ एवं उच्च कोटि के विचारों वाला था। द्रोण और देढ़ी दोनों का ही यौवन ढलने लगा तब तक उनको कोई सन्तान नहीं हुई। इसलिये देढ़ी विशेष रूप से चिन्तित रहती थी। एक समय जयसिंह नामक आचार्य सुखपाल (पालकी) में बैठ कर बड़े ही आडम्बर के साथ विचरण करते हुए दंत्राणी ग्राम में आये। उनके इस प्रकार के शिथिलाचार को देखकर श्रेष्ठि द्रोण और उनकी पत्नी देढ़ी दोनों ही उनको वन्दन-नमन करने के लिये उपाश्रय में नहीं गये । यह बात प्राचार्य जयसिंहसूरि के मन में घर कर गई । रात्रि में इसी चिन्ता में निमग्न आचार्य को बड़ी देर तक नींद नहीं आई। रात्रि के अन्तिम प्रहर में उन्होंने एक स्वप्न देखा। स्वप्न में शासनदेवी ने उनसे कहा कि आज से सातवें दिन एक पुण्यशाली जीव स्वर्ग से चल कर श्रेष्ठिपत्नी देढ़ी के गर्भ में आवेगा । वह बाल्यावस्था में ही दीक्षित होगा और विशुद्ध विधिमार्ग की स्थापना कर जिनशासन की महती प्रभावना करेगा। तुम देढ़ी को यह भविष्यवाणी सुना कर उससे उस के उस पुत्र की याचना कर लेना।
जयसिंहसूरि को बड़ी प्रसन्नता हुई। दूसरे दिन प्रातःकाल उन्होंने श्रेष्ठ दम्पति द्रोण और देढ़ी को अपने पास उपाश्रय में बुलवाया । उन दोनों ने लोकव्यवहार का निर्वहन करते हुए उपाश्रय में जाकर जयसिंहसूरि को वन्दन नमन किया । तदनन्तर प्राचार्य जयसिंहसूरि ने द्रोण से प्रश्न किया—'तुम दोनों धर्मनिष्ठ होते हुए भी मुझे वन्दन करने के लिये कल किस कारण से नहीं आये ?"
श्रेष्ठि द्रोण तो मौन रहा, किन्तु स्पष्टवादिनी देढ़ी ने निर्भीकतापूर्वक उत्तर दिया-"प्राचार्य देव ! वर्तमान में आप जिनशासन के नायक हैं। आप
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