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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
खरतरचच्छ
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“इसी प्रकार खरतरगच्छ के आचार्यों ने नाममात्र का निमित्त पाकर चौमासे में इधर-उधर जाने में पाप नहीं समझा और खूबी यह है कि इनके पिछले गुर्वावलीकार लेखक रायाभियोगेणं इस आगार को आगे कर इस अनुचित प्रवृत्ति का बचाव करते हैं। उनको समझ लेना चाहिये कि इन बातों में राजाभियोग, गणाभियोग लागू ही नहीं होता। राजा साधुओं को वर्षाकाल में इधर-इधर होने की प्राज्ञा क्यों देगा राजनीति तो साधु नट नर्तक आदि घुमक्कड़ जातियों को वर्षाकाल में एक स्थान पर रहने की आज्ञा देती है, तब खरतरगच्छ के प्राचार्यो को वह वर्षाकाल में घूमने की आज्ञा क्यों देगी? युग प्रधान श्री जिनचन्द्रमूरिजी वर्षाकाल में बादशाह अकबर के पास जाने को रवाना हए और जालौर तक पहुंचने के बाद उनको बादशाह की तरफ से समाचार पहुंचे कि वर्षा काल में चलते हुए पाने की कोई आवश्यकता नहीं है, तब आपने शेष वर्षाकाल जालौर में बिताया। जहां तक हम समझ पाये हैं वह यह है कि श्री जिनदत्तसूरि से ही खरतरगच्छ के अनुयायियों को गुरु पारतन्त्र्य का उपदेश मिलना प्रारम्भ हो गया था, उसके ही परिणामस्वरूप खरतरगच्छ में यह बात एक सिद्धान्त बन गयी है कि पागम से प्राचार्य परम्परा अधिक बलवती है। किसी प्रसंग पर आचरणा के विपरीत पागम की बात होगी तो आगमिक नियम को छोड़कर आचरणा की बात को प्रमाण माना जावेगा, शास्त्र विरुद्ध यात्रार्थ भ्रमण और वर्षाकाल तक की उपेक्षा करना उसका कारण एक ही है कि इस प्रकार की प्रवृत्तियों के विरुद्ध कुछ भी कह नहीं सकते थे, ठीक है, गुरु पारतन्त्र्य में रहना चाहिये परन्तु पारतन्त्र्य का अर्थ यह तो नहीं होना चाहिये कि शास्त्र विरुद्ध अथवा लोक प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में भी गुरुत्रों को कुछ नहीं कहा जाय, अांखें मूंदकर गुरुओं की प्रवृत्तियों को निभाने का परिणाम यह होगा कि धीरे-धीरे गुरु और गच्छ दुनिया से विदा हो जाएंगे।"
उपरिवरिणत तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर यह स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि यदि वर्द्धमानसूरि एवं जिनेश्वरसूरि द्वारा चालुक्यराज और उनकी राजसभा के समक्ष की गई घोषणा के अनुसार उनकी परम्परा के पट्टधर पंचांगी में से एकमात्र प्रागमों को ही सर्वोपरि और परम प्रामाणिक मानते रहकर पंचांगी के शेष भाग नियुक्ति, भाष्य, वृत्ति और चुरिणयों को आगमों की कोटि में अर्थात् आगमों के समान ही निर्णायक अथवा परम मान्य नहीं मानते तो भगवान महावीर के धर्मसंघ में न शिथिलाचार ही पनपता, न विकृतियां ही उत्पन्न होतीं, और न समय-समय पर महापुरुषों को क्रियोद्धार के रूप में धर्म-क्रान्तियां ही करनी पड़तीं।
आगमों के गहन अर्थ को समझने-समझाने में नियुक्तियां, वृत्तियां, भाग्य और चूर्णियां बड़ी सहायक हैं, इसमें कोई दो मत नहीं, किन्तु कोई भी एक सैद्धान्तिक
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