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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ बात का मूलागम में कोई उल्लेख नहीं, कोई इंगित तक नहीं, वह बात नियुक्ति, भाष्य ,वृत्ति और चूरिण में विस्तार से उल्लिखित हो और जैनधर्म के अाधारभूत सिद्धान्तों अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह के विपरीत हो, आगमों की भावना के प्रतिकूल हो तो उस स्थिति में आगमों की उपेक्षा कर नियुक्तियों आदि को सर्वोपरि प्रामाणिक मान लेना सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र की परिभाषा में नहीं आ सकता। जैसाकि ऊपर बताया जा चुका है संघ भेद, सम्प्रदाय भेद, मान्यता भेद आदि सभी भेदों, बिखरावों का मूल उद्गम स्थल अथवा मूल कारण पंचांगी को आगमों के समान ही प्रामाणिक मानने, न मानने की भावना ही
रही है।
खरतरगच्छ की पट्टावली
खरतरगच्छ की विभिन्न समय में लिखी गई अनेकों पट्टावलियां उपलब्ध होती हैं। उनमें कतिपय पट्टधरों के क्रम और नामों के सम्बन्ध में विभिन्नता दृष्टिगोचर होती है। उन सब पट्टावलियों को यहां उद्धृत करना और उनमें उल्लिखित पट्टधरों के नामों एवं नाम क्रम सम्बन्धी विभेदों के औचित्यानौचित्य पर विचार करना सम्भव नहीं। क्योंकि इसमें अनावश्यक रूपेण ग्रन्थ का कलेवर बड़ा हो जायगा और प्रत्येक विभेद के सम्बन्ध में ठोस प्रमाणों के अभाव के कारण सत्यान्वेषी पाठकों को कोई विशेष लाभ भी नहीं मिलेगा।
इस प्रकार की स्थिति में खरतरगच्छ के सित्तरवें प्राचार्य जिनमहेन्द्रसूरि के प्राचार्य काल में विक्रम की १६वीं बीसवीं शताब्दी के संधिकाल में बनाई गई पट्टावली के केवल पट्टक्रम को ही शोधार्थियों के लिये उपयोगी कतिपय उल्लेखों के साथ यहां प्रस्तुत करना पर्याप्त समझा जा रहा है। यह पट्टावली खरतरगच्छ की अन्यान्य अधिकांश पट्टावलियों के साथ पर्याप्त अंशों में मिलती-जुलती है, इससे विश्वास किया जाता है कि इस पट्टावली के रचनाकार ने अपने से पूर्व के अनेक पट्टावलीकारों को अपने सम्मुख रखते हुए इस पट्टावली की रचना की होगी। इस बात को ध्यान में रखते हुए भी प्राचार्यश्री जिनमहेन्द्रसूरि के समय में निर्मित इस पट्टावली को यहां उद्धत करना पर्याप्त समझा गया है। २६ पत्रों की यह पट्टावली संस्कृत भाषा में लिखी गई है। लेखक ने प्रारम्भिक शीर्षक में इसका नाम पट्टावली के स्थान पर गुर्वावली लिखा है। इसमें उल्लिखित निर्वाण सम्वत् १ से लेकर विक्रम सम्वत् १८६२ में इस परम्परा के ७०वें पट्टपर आसीन श्री जिनमहेन्द्रसूरि तक भगवान् महावीर के पट्टधरों का पट्टक्रम दिया है, जो इस प्रकार है :
१. सुधर्मा स्वामी २. जम्बू स्वामी
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