________________
३८६ ]
[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
सेना की शस्त्रास्त्र वर्षा के कारण गुर्जर सेना को किंचित्मात्र भी सफलता नहीं मिली। इस लम्बे युद्ध से क्रुद्ध हो एक दिन महाराजा जयसिंह ने अपनी विशाल सेना के सामने यह घोषणा की :- "जब तक धारानगरी पर अधिकार नहीं कर लिया जायगा तब तक मैं अन्न ग्रहण नहीं करूंगा ।" अपने राज राजेश्वर की इस प्रतिज्ञा को सुनकर गुर्जर राज की सेना ने 'कार्यं वा साधयामि देहं वा पातयामि' जैसे दृढ़ संकल्प के साथ नगर पर भीषण आक्रमण किया । सूर्यास्त होने तक लगभग पांच सौ परमार सेनानी रणचण्डी की बलिवेदी पर जूझते जूझते अपने शीश चढ़ा चुके किन्तु महाराजा जयसिंह की प्रतिज्ञा अपूर्ण ही रही । इस प्रकार की भीषण स्थिति में गुर्जर सेना के कतिपय सेनानियों ने मन्त्ररणा की कि कृत्रिम धारानगरी का निर्माण कर उसे ध्वस्त कर दिया जाय किन्तु दृढ़ प्रतिज्ञ जयसिंह ने जब यह सुना तो उनकी प्रांखें कोपानल उगलने लगीं और उन्होंने घनरव गम्भीर दृढ़ स्वर में कहा : “ - " मैं धारानगरी पर अधिकार करने के अनन्तर ही अन्न ग्रहरण करूँगा ।” प्रधानामात्य शान्तु ने अपने बुद्धि कौशल एवं कुशल चरों के माध्यम से गुप्त रूप से धारानगरी के ही एक वयोवृद्ध निवासी से यह ज्ञात कर लिया कि यदि पूरी शक्ति लगाकर नगर के दक्षिणी भाग की प्रतोली पर प्रचण्ड वेग के साथ आक्रमण किया जाय तो दुर्ग भंग हो सकता है अन्यथा किसी भी भांति सम्भव नहीं है । इस गुप्त भेद के ज्ञात होते ही जयसिंह ने अपने रणबांकुरे तूफानी सैनिक टुकड़ी के योद्धाओं का नेतृत्व करते हुए उस दुर्ग पर भीषण आक्रमण कर दिया। जयसिंह ने अपने यशः पटह नाम के गजराज पर चढ़कर श्यामल नामक महावत को प्राज्ञा दी कि वह हाथी को उस त्रिपोली के लोह कपाटों पर झौंक दे । उस पट्ट हस्ति ने पूरी शक्ति लगाकर उन लोह कपाटों पर अपने मस्तक से भीषण प्रहार किया। हाथी के शक्तिशाली आक्रमण से लोह कपाटों की अर्गला टूट गई और हाथी द्वार के अन्दर प्रविष्ट होने लगा । लोह कपाटों के गिरने से पट्टहस्ति का कपाल फट गया । यह देखकर महावत ने विद्युत् वेग से लपक कर महाराज जयसिंह को पृष्ठ भाग की ओर से उतार कर ज्योंही वह स्वयं उतरने लगा कि वह हाथी पृथ्वी पर गिर पड़ा। जयसिंह अपनी मालव सेना के साथ नगर में प्रविष्ट हुआ और उसने मालवराज यशोवर्मा को बन्दी बना लिया । तदनन्तर विजयी जयसिंह ने मालव राज्य को अपने अधिकार में कर सर्वत्र अपनी प्रज्ञा प्रसारित कर दी । मालव राज्य पर अपना अधिकार करने और वहां पर शासन के लिए समुचित रूपेरण व्यवस्था करने के अनन्तर गुर्जराधीश जयसिंह पट्टण को लौट गया । स्थान-स्थान पर ग्रामों और नगरों में प्रजा ने अपने विजयी महाराजा का जयघोषों के साथ वर्धापन किया । पत्तन पहुंचने पर गूर्जरेश ने शुभ मुहूर्त्त में नगर में प्रवेश करने के अभिप्राय से नगर के बाहर ही अपनी सेना का पड़ाव डाला । उस समय पत्तन में विद्यमान सभी धर्माध्यक्षों ने नियत समय पर गुर्जरेश के पास जाकर अपनी-अपनी अभिनव काव्य रचनाओं से उनका अभिवादन किया । एक दिन जैनाचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि ने भी महाराजा जयसिंह को आशीर्वाद देते हुए निम्नलिखित श्लोक पढ़ा :
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org