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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
खरतरगच्छ
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वह तो अन्ततोगत्वा परम पद मोक्ष में ही निवास करता है। टीकाकार ने इसको और स्पष्ट करते हुए लिखा है कि विधि विधान के अनुसार विधिचैत्य में विधि सहित उपासना अर्चा करने की लालसा लिये अथवा अपने विधिचैत्य में प्रविधि कार्यों की प्रवृत्तियों को सहन न कर सकने के कारण "जिन प्रवचन के अहित करने वाले कार्य" को पूरी शक्ति के साथ रोकने का प्रयास करता है।" इस सिद्धान्त वचन के अनुसार यदि वह धार्मिक व्यक्ति जिन प्रवचन का अहित करने वाले लोगों में से किसी को मार भी डालता है तो भी वह शुद्ध अध्यवसाय के कारण विशुद्ध चारित्र की परिपालना में प्रवृत्त उस महा मुनि के समान निष्पाप ही होगा, जिससे विशुद्ध चारित्र के निर्वहनार्थ पूर्ण यतना के साथ गमनागमन करते समय द्वीन्द्रिय आदि किसी प्राणी की सहसा अनजान में हत्या हो गई हो।
उपदेश रसायन रास के इन उल्लेखों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर खरतरगच्छ के विरोध में उग्र रूप धारण की हुई तत्कालीन स्थिति का स्पष्टतः आभास होता है। इन पद्यों से यही ध्वनि प्रकट होती है कि जिनवल्लभसूरि ने अणहिल्लपुर पट्टण में अनेक विधि चैत्यों की स्थापना की। चैत्यवासी परम्परा के वर्चस्वकाल में चैत्यनिर्माण आदि के माध्यम से जैन धर्म संघ में प्रविष्ट हुई विकृतियों को दूर करने के उद्देश्य से खरतरगच्छ द्वारा प्रारम्भ किया गया विधि चैत्य निर्माण का अभियान भी वस्तुतः एक प्रकार की धर्म क्रान्ति अथवा क्रियोद्धार का ही रूप था।
जिनवल्लभसूरि के उपदेशों से निर्मापित विधि चैत्यों पर विरोधियों ने संगठित हो अधिकार कर लिया। खरतरगच्छ के अनुयायियों द्वारा जब अपने विधि चैत्यों पर पुनः अपना अधिकार किये जाने का प्रयास किया गया तो सम्भवतः महाराजा सिद्धराज जयसिंह के राज्यकाल में उन अन्यान्य गच्छानुयायी विरोधियों ने राजाज्ञा द्वारा उन विधि चैत्यों पर अधिकार करने में सफलता प्राप्त की। अपने एक विधिचैत्य पर प्रविधि चैत्य के उपासकों द्वारा राजाज्ञा के माध्यम से अधिकार कर लिये जाने पर जिनवल्लभसूरि ने उपदेश देकर दूसरे विधि चैत्य का निर्माण करवाया। उस पर भी विरोधियों ने अधिकार कर लिया। इस प्रकार अपने चार पांच अथवा आठ दस विधि चैत्यों पर विरोधियों द्वारा अधिकार कर लिये जाने पर जिनवल्लभसूरि ने इस प्रकार की स्थिति का और साथ ही साथ चैत्यवासी परम्परा का विरोध प्रारम्भ किया। उस समय तक चैत्यवासी परम्परा ने अवसरानुकूल समन्वयवादी नीति का अवलम्बन लेकर पाटण संघ पर अपना वर्चस्व बनाये रखा था । जिनवल्लभसूरि की इस प्रकार की बहुमत विरोधी गतिविधियों से रुष्ट होकर पाटण संघ ने उन्हें संघ से बहिष्कृत कर दिया।
इस प्रकार की विद्वेषपूर्ण स्थिति में अपने लिये अपनी मान्यता के प्रचारप्रसार के स्रोतों को अवरुद्ध समझकर जिनवल्लभसूरि को पाटण से विहार करना
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