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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
श्री जिनप्रभसूरि द्वारा इस प्रकार की प्रति कटु भाषा में की गई आलोचना से यह तथ्य स्पष्टतः प्रकाश में आता है कि विक्रम सम्वत् १६२६ में अपनी प्रवचन परीक्षा आदि खंडनात्मक कृतियों के माध्यम से जैन संघ में पारस्परिक विद्वेषाग्नि को प्रति प्रचंड रूप में उद्दीप्त करने वाले तपागच्छीय उपाध्याय धर्मसागरजी से लगभग २५० वर्ष पूर्व विक्रम सम्वत् १३६३ में विधि प्रपा के रचनाकार आचार्यश्री जिनप्रभसूरि के समय में भी जैन धर्म संघ पारस्परिक कलह अर्थात् साम्प्रदायिक विद्वेष की अग्नि में विदग्ध हो रहा था ।
खरतरगच्छ की प्रशाखाएं
खरतरगच्छ में समय-समय पर जो शाखा प्रशाखाएं उत्पन्न हुईं, संक्षेप में उनका विवरण इस प्रकार है
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१. विक्रम सम्वत् १२०४ में श्री जिनशेखराचार्य से रुद्रपल्लीय खरतर शाखा का प्रादुर्भाव हुआ ।
२. वि० सं० १२०५ में श्री जिनदत्तसूरि के जीवन के सन्ध्या - काल में मधुकर खरतर शाखा का उद्भव हुआ ।
३. वि० सं० १२२२ में जिनेश्वरसूरि के समय बेगड खरतर शाखा का उद्गम हुआ ।
४. वि० सं० १२८० में जिनेश्वरसूरि 'द्वितीय' ने जिन प्रबोध और जिनसिंह नामक अपने दो प्रमुख शिष्यों को अपने दो उत्तराधिकारी प्राचार्यों के रूप में पट्टधर नियुक्त कर अपने खरतरगच्छ में वृहत् खरतरगण और लघु खरतरगरण नामक दो शाखाओं की स्थापना की ।
५. वि० सं० १४६१ में श्री वर्द्धमानसूरि ने पिप्पलिया खरतरगच्छ की स्थापना की । समय सुन्दर कृत पट्टावली में वि० सं० १४६१ में श्री जिनवर्द्धनसूरि से पिप्पलिया खरतरगच्छ के उत्पन्न होने का उल्लेख है ।
६. वि० सं० १५६० में श्री शान्तिसागर आचार्य ने 'आचार्या' नामक खरतरगच्छ की नई शाखा का प्रचलन किया ।
७. वि० सं० १६१२ में भावहर्ष गरिए ने खरतरगच्छ में अपने नाम पर भाव हर्षीया शाखा को जन्म दिया ।
८. वि० सं० १६७५ में श्री रंगविजयसूरि ने खरतरगच्छ में अपने नाम पर रंगविजया शाखा की स्थापना की ।
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