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दशाचार्ये श्री जिनदत्तसूरि गच्छात् बहिष्कृतः ततः पद स्थापना कारकं श्रावकं पृष्ट्वा वर्ष त्रयावधि कृत्वा निर्गतः । "
सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २
यथा :
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अर्थात् जिनवल्लभसूरि द्वारा संघ से निष्कासित साधु ( जिनशेखर ) को पुनः अपने गच्छ में ले लेने के अपराध में गच्छ के १३ प्राचार्यों ने श्री जिनदत्तसूरि को गच्छ से बहिष्कृत कर दिया । तब पदस्थापना कारक श्रावक को पूछ कर श्री जिनदत्तसूरि अन्यत्र विहार कर गये ।
अंचलगच्छ की शतपदी नामक समाचारी में भी इस प्रकार का उल्लेख है
खरतरगच्छ
जिनदत्त क्रियाकोशच्छेदोऽयं यत्कृतस्ततः । संघोक्तभीतितस्तेऽभूदारुह्योष्ट्र पलायनम् ।।
( प्रवचन परीक्षा, ४ विश्राम, पृ० ३६८ )
अर्थात् हे जिनदत्त ! तुमने स्त्रियों द्वारा जिनेन्द्र की मूर्ति की पूजा किये जाने का विरोध करके क्रिया के कोषागार पर प्रहार किया है । इसी अपराध में संघ के भय से भयभीत हो तुम्हें ऊंट पर आरूढ़ होकर अणहिल्लपुर पट्टण से पलायन करना पड़ा है ।
चैत्यवासियों तथा सुविहित परम्परा के कतिपय गच्छों द्वारा किये गये खरतरगच्छ के विरोध ने अन्ततोगत्वा सम्भवतः बड़ा उग्र रूप धारण कर लिया होगा । इसका अनुमान हमें जिनदत्तसूरि द्वारा रचित अपभ्रंश भाषा के “उपदेश रसायन रास" नामक ग्रन्थ से भी होता है । यथा :
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"विहिचेईहरि विहिकरेवइ, करहि उवाय बहुत्ति ति लेवइ । जइ विहि जिणहरि अविहि कयट्टइ । ताधिउ सत्तुयमज्भि पलुट्टइ ||२३|| जइ किर नरवइ कि वि दूसमवस ताहि विहि विहिचेइय दस । तह विन धम्मिय विहि विणु झगडहि जइते सव्वि वि उट्ठहि लगुडिहि ||२४||
यदि किल केऽपि नृपतयः केचन निर्विवेकिनो लुब्धा दुःख (ष) मावशाद् दुष्टकालमाहात्म्याल्लोभाभिभूतास्तेषामप्य विधिकारिणामर्पयन्ति पूजनाय विधि चैत्यानि "दशेति यमकानुरोधेन तेन त्रीणि चत्वारि वेति द्रष्टव्यम् ।" तथापि विधि चैत्यापहारेऽपि धार्मिका विधि विना मुक्तिमन्तरेण न तैः सह कलहायन्ते । यदि ते • बिपक्षा सर्वेऽप्युत्तिष्ठन्ते लगुडैः प्रहतु मित्यर्थः ।।२४।।
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