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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
के प्रचंड प्रभाव के परिणामस्वरूप ठहरने तक का स्थान नहीं मिला । अपने प्रगल्भ पांडित्य से राज पुरोहित सोमेश्वर को प्रभावित कर उसके भवन में उन सूरि द्वय ने अन्ततोगत्वा स्थान प्राप्त किया । बन्धु द्वय के प्रकांड पांडित्य की ख्याति पल भर में ही पाटरण में प्रसृत हो गई । श्रुति स्मृति के पारदृष्वा विद्वान्, याज्ञिक, अग्निहोत्री कर्मकांडी आदि सोमेश्वर के भवन की ओर उमड़ पड़े और सूरि द्वय के साथ ज्ञान गोष्ठी करने लगे ।"
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" चैत्यवासियों को जब यह सब कुछ विदित हुना तो उन्होंने अपने कर्मचारियों को प्रादेश दिया कि वे उन नवागन्तुक वसतिवासियों को पाटण से बाहर निकालें । चैत्यवासियों के उन वेतन भोगियों ने राज पुरोहित के आवास पर आकर जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि से कहा - " महात्मन् ! आप शीघ्रातिशीघ्र नगर से बाहर चले जाइये क्योंकि गुर्जरेश की राजाज्ञानुसार चैत्यवासी परम्परा से भिन्न अन्य किसी भी श्रमण परम्परा के श्रमरण श्रमणियों के लिये यहां ठहरने का निषेध है । "
" राज पुरोहित सोमेश्वर ने आदेशात्मक गम्भीर स्वर में चैत्यवासियों के उन सेवकों की भोर प्रभिमुख होकर कहा - "ये श्रमरणश्रेष्ठ इस नगर में रहें अथवा नगर से बाहर जायें, इस बात का निर्णय गुर्जरेश्वर की राज्यसभा में ही होगा ।"
“चैत्यवासियों के अनुचर निरुत्तर हो तत्काल राज पुरोहित के आवास से बाहर ग्रा चैत्यवासी आचार्य के मठ की ओर लौट गये और राज पुरोहित ने जो कुछ कहा था, वह उन्होंने चैत्यवासी मुख्याचार्य की सेवा में निवेदित कर दिया ।"
दूसरे दिन प्रातःकाल चैत्यवासी प्राचार्य अपने गण्यमान्य प्रमुख प्रतिनिधियों एवं उपासकों के साथ महाराज दुर्लभराज के समक्ष राज सभा में उपस्थित हुए। उसी समय राज पुरोहित सोमेश्वर भी राजसभा में उपस्थित हुआ और उसने महाराजाधिराज का समुचित अभिवादन करने के अनन्तर निवेदन किया- "महाराज ! दो जैन मुनि बाहर से
ऊचुश्च ते झटित्येव, गम्यतां नगराद् बहिः ।
श्रस्मिन्न लभ्यते स्थातु, चंत्य बाह्य सिताम्बरः ।। ६४ ।।
प्रभावक चरित्र, अभयदेवसूरि चरितम्,
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