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| जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ पट्टावली के उपर्युक्त पाठ में संघपति द्वारा अपने निवास स्थान पर जिनमहेन्द्रसूरि को बुलाकर स्वर्णमुद्राओं से नवांग पूजा करने और दस हजार की थैली भेंट करने की बात कही है। ठीक तो है, संघपति जब धनवान् है तो अपने गुरु को धनहीन कैसे रहने देगा। इन बातों से निश्चित होता है कि उन्नीसवीं शताब्दी के श्री पूज्य नाम से पहिचाने जाते जैन प्राचार्य और यति के नाम से प्रसिद्ध जैन साधु पूरे परिग्रहधारी बन चुके थे। संघपति ने अपने आचार्य तथा साधुओं को वस्त्र और दो-दो रुपये भेंट किये, यह एक साधारण बात है, परन्तु आचार्य जिनमहेन्द्र सूरि द्वारा प्रत्येक साधु को दो-दो रुपयों के साथ वस्त्र देना हमारी राय में उचित नहीं था। कुछ भी हो, परन्तु खरतरगच्छ के अतिरिक्त अन्य सभी गच्छों के प्राचार्य तथा साधुओं को ऊपर जाने से रोकने वाले संघपतियों से तथा उनके गुरु श्री जिनमहेन्द्रसूरि से अन्य गच्छ के प्राचार्यों तथा साधुओं ने वस्त्र तथा मुद्राओं की दक्षिणा ली होगी, इस बात को कौन मान सकता है। जिनके मन में अपनी सम्प्रदाय का और अपनी आत्मा का कुछ भी गौरव होगा तो वे दक्षिणा तो क्या उनकी शक्ल तक देखने को तैयार नहीं होंगे ।.... ...
पट्टावली सख्या २३२६ में उल्लिखित इस प्रकार के विवरण से तो स्पष्टतः यही प्रमाणित होता है कि विक्रम की १६वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में इस यशस्विनी परम्परा खरतरगच्छ के आचार्यों में शैथिल्य इस सीमा तक बढ़ गया था कि चैत्यवासियों और इस सुविहित कही जाने वाली परम्परा के प्राचार्यों के आचारविचार में कोई विशेष अन्तर नहीं रह गया था।
आगमों में प्रतिपादित जैन श्रमण की चर्या की तुलना में जिनमहेन्द्रसूरि जैसे आचार्यों के आचार-विचार व्यवहार पर विचार करने से तो ऐसा प्रतीत होता है कि शास्त्रों में प्रतिपादित जिनाज्ञा से उस समय के साधुओं का कोई किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रह गया था।
वद्धमानसूरि की परम्परा
खरतरगच्छ
सामूहिक विरोध वर्द्धमानसूरि की परम्परा के आचार्यों द्वारा जैनधर्म और जैन श्रमणाचार के आगमिक स्वरूप की पुनः प्रतिष्ठा के लिये जब तक प्रयास किये जाते रहे, तब तक चैत्यवासी परम्परा के अनुयायियों द्वारा इस परम्परा का पग-पग पर विरोध किया जाता रहा। १. पट्टावली पराग संग्रह, पृष्ठ ३७४ से ३७६, पं. श्री कल्याणविजयजी महाराज कृत,
जालौर, ईस्वी सन् १९६६ में मुद्रित ।
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