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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] खरतरगच्छ
[ ४७१ जिनेश्वरसूरि की इस अकाट्य युक्ति से चैत्यवासी निरुत्तर हो गये। उनके निगम उनके बस्तों में धरे ही रह गये क्योंकि जिनेश्वरसूरि के इस कथन के अनन्तर सभा, सभ्यों और न्यायवादी राजा दुर्लभराज के समक्ष चैत्यवासी प्राचार्यों द्वारा रचित निगमों का कोई मूल्य एवं कोई महत्व अवशिष्ट नहीं रह गया था।
यही कारण था कि प्रागमों को ही परम प्रामाणिक मान कर दशवकालिक के आधार पर दुर्लभराज की उपस्थिति अथवा अध्यक्षता में शास्त्रार्थ हुआ। चैत्यवासियों के पक्ष के खण्डन और अपने पक्ष के मंडन में जिनेश्वरसूरि ने दशवकालिक नामक आगम का प्रमाण प्रस्तुत करने के साथ जब यह कहा-"एवं विधायां वसतौ वसन्ति साधवो न देवगृहे" तो गुर्वावलीकार के "राज्ञा भावितं युक्तमुक्तम्” इस उल्लेख के अनुसार दुर्लभराज ने भाव-विभोर होकर पूर्णतः युक्तिसंगत सत्य बात कही है।
गुर्वावलीकार का यह उल्लेख प्रभावक चरित्रान्तर्गत ऊपर उद्ध त किये गये प्रभाचन्द्रसूरि से २६ वर्ष पूर्व का उल्लेख है। जिनपालोपाध्याय विक्रम की तेरहवीं शती के एक समर्थ ग्रन्थकार और लब्धप्रतिष्ठ वादी थे। उन्होंने चर्चरी, उपदेश रसायन रास एवं काल स्वरूप कुलक की टीकाओं की रचना की । वि० सं० १२२५ में उन्होंने श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण की। वि० सं० १२६६ में उन्हें वाचनाचार्य पद प्रदान किया गया। वि० सं० १३०५ में, जबकि उनका व्रत पर्याय ८० वर्ष का हो चुका था, उस समय उन्होंने गुर्वावली की रचना की । इस प्रकार के दीर्घ दीक्षापर्याय वाले वयोवृद्ध विद्वान् द्वारा खरतरगच्छ की गुर्वावली लिखी गयी। उस समय उनके समक्ष परम्परा से लिखित अथवा कर्ण परम्परा से समागत कोई न कोई प्राचीन पुष्ट प्रमाण रहा ही होगा, ऐसी आशा की जाती है । इस प्रकार की स्थिति में विज्ञजन स्वयं ही निर्णय कर सकते हैं कि जिनपालोपाध्याय द्वारा लिखा गया अपनी परम्परा का ऐतिहासिक विवरण दूसरे किसी विद्वान् द्वारा लिखे गये विवरण की तुलना में कितना प्रामाणिक, कितना विश्वसनीय हो सकता है ।
पाटण में वसतिवास प्रचलित करने की घटना का विवरण प्रस्तुत करते हुए प्रभावक चरित्रकार प्रभाचन्द्रसूरि ने जिनपालोपाध्याय के विवरण से भिन्न प्रकार का विवरण दिया है, जिसको पढ़ने से स्पष्टतः प्रकट होता है कि दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासियों के साथ जिनेश्वरसूरि का किसी प्रकार का शास्त्रार्थ अथवा वाद-विवाद नहीं हुआ।
आचार्य प्रभाचन्द्रसूरि ने वि० सं० १३३४ में अर्थात् जिनपालोपाध्याय द्वारा लिखित गुर्वावली से २६ वर्ष पश्चात् प्रभावक चरित्र की रचना की ।' १. वेदानलशिखिशशधर (१३३४) वर्षे चैत्रस्य धवल सप्तम्याम् । शुक्रे पुनर्वसुदिने, सम्पूर्ण पूर्वऋषिचरितम् ।।२२।।
प्रभावक चरित्र प्रशस्ति, पृष्ठ २१६
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