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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ विहार कर अन्यत्र चले गये और उन्होंने पाटन से बाहर विभिन्न स्थानों में पंचमी के दिन संवत्सरी पर्व का आराधन किया। केवल विधि पक्ष-अंचल गच्छ के प्राचार्यश्री जयसिंहसूरि और उनके शिष्य शिष्या वर्ग ने प्राचार्यश्री जयसिंहसूरि की अद्भुत सूझबूझ के बल पर पाटन में ही राजाज्ञा के विपरीत पंचमी के दिन ही महापर्वाधिराज पर्युषण पर्व का आराधन किया। विधिपक्ष के प्राचार्य जयसिंहसूरि और उनके गच्छ के अनुयायियों ने अचल रहकर पाटन में ही पर्वाराधन किया, इस कारण उनके गच्छ का दूसरा नाम 'अचल ग्रच्छ' भी लोक में प्रचलित हो गया।'
मेरुतुगीया विधि पक्ष अथवा अंचलगच्छ पट्टावली के उपरिलिखित उल्लेख को इतिहास की कसौटी पर कसा जाय तो यह उल्लेख खरा सिद्ध नहीं होता क्योंकि यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि का स्वर्गवास विक्रम सम्वत् १२२६ में और परमाहत महाराज कुमारपाल का देहावसान आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि के दिवंगत होने के छः मास पश्चात् विक्रम सम्वत् १२३० में हुआ । इस सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक प्रकाश आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि के जीवनवृत्त में डाला जा चुका है। यहां इस स्थान पर तो यही बताना अभीष्ट है कि महाराज कुमारपाल परमाहत थे। वे सम्पूर्ण जैन संघ को एकता के सूत्र में आबद्ध करना चाहते थे और प्राचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि की समन्वय वादी नीति का अनुसरण करते हुए परम्परागत मान्यता का ही पक्ष लेते थे। परमार्हत महाराज कुमारपाल द्वारा परम्परागत मान्यता को सर्वाधिक महत्त्व दिये जाने का एक और निम्नलिखित उदाहरण जैन वांङ्मय में उपलब्ध होता है जो वस्तुतः एक प्रबल रूपेण परिपुष्ट ऐतिहासिक उदाहरण है।
विक्रम सम्वत् १२१३ में किसी समय एक दिन परमाहत महाराज कुमारपाल आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि को वन्दन करने गये, उसी समय विधि पक्ष का कवडि नामक श्रावक भी आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि को वन्दन करने के लिए उपस्थित हुआ। महाराज कुमारपाल ने अष्टपुटी मुख वस्त्रिका से प्राचार्यश्री को वन्दन किया और कवडि श्रावक ने उत्तरासंग से वन्दन किया। महाराज कुमारपाल को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि कवडि श्रावक. मुहपति के स्थान पर उत्तरासंग के अंचल से ही प्राचार्यश्री को वन्दन कर रहा है। राजा ने तत्काल प्राचार्यश्री से पूछा"भगवन् ! यह नमस्कार करने की कौनसी विधि है ? जो यह श्रमणोपासक उत्तरासंग के अंचल से वन्दन कर रहा है।" प्राचार्य श्री ने कहा-"राजन् ! आप जो मुखवस्त्रिका के साथ वन्दन कर रहे हो, यह परम्परागत परम्परा है और यह श्रावक जिस प्रकार वन्दन कर रहा है, वह जिनेश्वर भगवान् के वचनानुसार है। इस
....१...देखिये प्रस्तुत ग्रन्थ का ही “अंचल मच्छ” प्रकरण
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