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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास--भाग ४
४. आत्म प्रबोध (१४१) में लिखा है : “वैक्रम सम्वत् १०८० श्री पत्तने वादिनो जित्वा “खरतरेत्याख्यं विरुदं प्राप्ते जिनेश्वरसूरिणा प्रवर्तिते गच्छे ।"
५. श्री यशो विजयजी द्वारा रचित अष्टक (३२) में जिनेश्वरसूरि को चैत्यवासियों पर शास्त्रार्थ में विजयश्री प्राप्त कर लेने के उपलक्ष में पत्तनपति चालुक्यराज द्वारा "खरतर' विरुद प्रदान किये जाने का उल्लेख इस रूप में किया गया है :
आसीत्तत्पादपंकजैकमधुकृत्, श्री वर्द्धमानाभिधः, सूरिस्तस्य जिनेश्वराख्यगणभृज्जातो विनेयोत्तमः । यः प्रापत् शिवसिद्धिपंक्ति (सं० १०८०) शरदि, श्री पत्तने वादिनो, जित्वा सद्विरुदं कृती खरतरे
त्याख्यां नृपादेमुखात् ।। ६. उपाध्याय श्री क्षमा कल्याण द्वारा विक्रम सम्वत् १८३० में रचित गुर्वावली में श्री दान सागर जैन ज्ञान भण्डार, बीकानेर श्री पूज्यजी का उपासरा, पो० १०, ग्रन्थ १५२, पत्र २० में खरतरगच्छ की स्थापना के सम्बन्ध में निम्नलिखित रूप में उल्लेख उपलब्ध है :
"............ततः शास्त्राविरुद्धाचारदर्शनेन जिनेश्वरसूरिमुद्दिश्य "अति खरा एते" इति राज्ञा प्रोक्तम् । तत एवं खरतर विरुदं लब्धं । तथा चैत्यवासिनो हि पराजयप्रापणात् कुवला इति नामधेयं प्राप्ताः। एवं च सुविहित पक्षधारकाः श्री जिनेश्वर सूरयो विक्रमतः १०८० वर्षे खरतर विरुदधारकाः जाताः ।"
सुविहित नाम से पूर्व काल में सुविख्यात श्रमण परम्परा के आचार-विचार की परिपोषिका श्री वर्द्धमानसूरि से प्रचलित श्रमरण-श्रमणी परम्परा को अरणहिल्लपुर पाटण पति महाराजा दुर्लभराज ने खरतर, अतीव खरा, दोष विहीन विरुद से प्रतिपादित करने वाले उपरिवरिणत सभी छहों उल्लेख न केवल जिनेश्वरसूरि के ही उत्तरवर्ती काल के हैं अपितु वस्तुतः उनके पर प्रशिष्य जिनदत्तसूरि दादा साहब से भी पश्चाद्वर्ती काल के हैं। इस तथ्य को प्रबल युक्ति संगत प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करते हुए विक्रम की सत्रहवीं शती के तपागच्छीय विद्वान् ग्रन्थकार उपा
१. गुर्वावली क्षमाकल्याण द्वारा रचित (फोटोस्टेट प्रति प्राचार्यश्री विनयचन्द्र ज्ञान भंडार, ___ चौड़ा रास्ता, जयपुर में विद्यमान) पृष्ठ १२
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