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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
खरतरगच्छ
[ ४६३ राजा दुर्लभराज ने जिनेश्वरसूरि के इस कथन को सर्वथा युक्तिसंगत ठहराते हुए चैत्यवासी प्राचार्यों की ओर अभिमुख हो कहा :- "इनका यह कथन पूर्णत: न्यायसंगत एवं युक्तिसंगत है।"
न्यायप्रिय राजा ने तथ्यातथ्य का निर्णय करने के लिये तत्काल सभ्यों को चैत्यवासियों के मठ में भेजकर वहां से ग्रागमों का गट्टर मंगवाया । आगमों के बस्ते को खोलते ही सर्व प्रथम जो शास्त्र उसमें से निकला, वह प्रभु महावीर के चतुर्थ पट्टधर चतुर्दश पूर्वधर आचार्य सय्यंभव द्वारा श्रमणाचार के सम्बन्ध में द्वादशांगी में से सार रूप में संग्रहीत-ग्रथित दशवैकालिक शास्त्र था।
श्रमण जीवन के प्रत्येक पहलू पर मधुकरी, जीवनपर्यन्त सभी प्रकार के सावद्य कार्यों---हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म अर्थात् मैथुन और परिग्रह का त्रिकरण, त्रियोग से पूर्णरूपेण परित्याग, वायु की भांति अप्रतिहत विहार, परीषह सहन
आदि पर सूर्य के समान पूर्ण प्रकाश डालने वाले दशवैकालिक शास्त्र में एक भी अक्षर ऐसा नहीं जो चैत्यवासियों के किसी भी पक्ष का पोषक हो, उनकी किसी भी जीवनचर्या-चैत्य में नियत निवास, रुपया, पैसा, चैत्य, मठ आदि परिग्रह का स्वामित्व, गादी, तकिये, मसनद, पालकी, आदि का उपभोग, ताम्बूल चर्वण आदि को साधु के लिए विषवत् त्याज्य अनाचार की कोटि का सिद्ध न करता हो । दशवैकालिक शास्त्र की
अन्नठं पगडं लेणं, भइज्ज सयणासरणं । उच्चार भूमि संपन्न, इत्थी पसुविवज्जियं ।।५२।। अ. ८ ।।१
इस गाथा ने तो चैत्यवासियों के पूर्व पक्ष को धुन कर पाक की रूई की भांति असीम आकाश में उड़ा कर निरस्त एवं निरवशिष्ट कर दिया।
राजसभा के विद्वान् निर्णायकों सहित राजा दुर्लभराज ने इस शास्त्रार्थ में चैत्यवासियों को पराजित और जिनेश्वरसूरि को विजयी घोषित किया।
शास्त्रार्थ में जिनेश्वरसूरि से पराजित हो जाने के उपरान्त भीचैत्यवासियों ने वर्द्धमानसूरि एवं उनके साधु समूह को अनहिल्लपुर पट्टण से निष्कासित करवा देने के उद्देश्य से षड्यन्त्र किये किन्तु राजा दुर्लभराज पूर्णतः आश्वस्त हो गया था कि वर्द्धमानसूरि आदि वसतिवासी साधु शास्त्रों की कसौटी पर खरे उतरे हैं और चैत्यवासी कंवले ढीले (खोटे), इसलिये चैत्यवासियों द्वारा वर्द्धमानसूरि और उनके शिष्यमंडल के विरुद्ध रचे गये सभी षड्यन्त्र पूर्ण रूपेरण असफल रहे । दुर्लभराज ने अपने राज पुरोहित को वसतिवासी साधुओं के निवास के लिये एक भवन भी बता दिया।
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