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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
खरतरगच्छ
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वाले अागम मर्मज्ञ त्यागी तपस्वी सच्चे गुरु की खोज में निकल पड़े । अनेक स्थानों में भ्रमण करने के उपरान्त ढिली अथवा दली (सम्भवतः साम्प्रतकालीन दिल्ली) के आसपास वनवासी अरण्यचारी परम्परा के उद्योतनसूरि नामक एक क्रियापात्र त्यागी तपस्वी एवं आगम निष्णात आचार्य मिले।"
अपनी आन्तरिक इच्छा के अनुरूप त्रिवेणी संगम तुल्य ज्ञान क्रिया एवं तपोनिष्ठ श्रमणश्रेष्ठ को पा वर्द्धमानसूरि ने उनका शिष्यत्व स्वीकार करते हुए उनसे उपसम्पदा (विशुद्ध श्रमण धर्म की दीक्षा) ग्रहण की। उद्योतनसूरि से शास्त्रों का तलस्पर्शी ज्ञान और आचार्य पद प्राप्त करने के अनन्तर वर्द्धमानसूरि ने जिनेश्वर, बुद्धि सागर आदि १७ शिष्यों के साथ जैनधर्म का प्रचार करने के दृढ़ संकल्प के साथ गुजरात की ओर विहार किया, जहां नियत-निवासी चैत्यवासी परंपरा के एकाधिपत्यपरक वर्चस्व के कारण आगमसम्मत धर्म का विशुद्ध स्वरूप लुप्तप्रायः हो चुका था। जहां चैत्यवासी परम्परा के अतिरिक्त अन्य सच्चे श्रमणश्रमणियों के न केवल विहार अपितु प्रवेश तक को चैत्यवासियों ने राजाज्ञा द्वारा निषिद्ध करवा दिये जाने के परिणामस्वरूप वहां के निवासी सर्वज्ञ-प्रणीत धर्म के सच्चे स्वरूप के साथ-साथ विहरूक क्रियानिष्ठ सच्चे श्रमण के प्राचार-विचार एवं वेष अथवा स्वरूप तक को भूल गये थे।
पाटण में पहुंचने पर चैत्यवासियों के प्रबल प्रभाव के कारण वर्द्धमानसूरि और उनके शिष्यों को वहां ठहरने तक के लिये कहीं स्थान नहीं मिला। प्रयास करने पर उनके त्याग, तप एवं सर्वतोमुखी प्रकांड पांडित्य से प्रभावित हो वहां के राजपुरोहित ने अपने भव्य भवन के एक भाग में उन्हें ठहराया। चैत्यवासियों को जब ज्ञात हया कि नवागन्तुक साधु राज पुरोहित के यहां ठहरे हैं, तो उन्होंने वर्द्धमानसूरि और राज पुरोहित दोनों के विरुद्ध षड्यन्त्र रचा। सम्पूर्ण पाटण नगर और राजप्रासाद तक में इस प्रकार का सनसनी उत्पन्न कर देने वाला समाचार प्रसारित कर दिया कि दुर्लभराज के राज्य के गुप्त भेद प्राप्त करने के लिये किसी शत्रु राजा के गुप्तचर साधुवेष में पाटण में आये हैं और राजमान्य पुरोहित के घर वे ठहरे हुए हैं ।
यह सुनकर एक बार तो राजा बड़ा क्रुद्ध हुआ किन्तु उसे अपने राज पुरोहित से पूछने पर वास्तविकता का पता चल गया कि वस्तुतः आगन्तुक महापुरुषों के विरुद्ध विरोधियों द्वारा रचा गया षड्यन्त्र मात्र है।।
इन उद्योतनसूरि नामक वनवासी जैनाचार्य को "श्री दानसागर जैन ज्ञान भण्डार" में उपलब्ध उपाध्याय श्री क्षमाकल्याण द्वारा रचित गुर्वावलि में शिष्य सन्ततिविहीन बताने के पश्चात् यह उल्लेख किया गया है कि उन्होंने वर्द्धमानसूरि को अपने पट्टधर शिष्य के रूप में प्राचार्यपद प्रदान किया।
-सम्पादक
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