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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] . महाराजा कुमारपाल
[ ४३३ किया जाता है कि उसने श्रावकों के विशाल समूहों को मुखवस्त्रिका के साथ सामूहिक रूप से अपने संग गुरुवन्दन करवाया ।'
इन सब उल्लेखों से यह सुनिश्चित रूप से सिद्ध हो जाता है कि जैनधर्म के प्रति प्रगाढ़ अास्था रखने वाला श्रावक शिरोमणि परमार्हत महाराजा कुमारपाल परम्परागत पुरातन मान्यताओं का प्रबल पक्षधर था और वह जैन संघ को उसी सर्वोच्च प्रतिष्ठित पद पर आसीन करना चाहता था जिस पर कि यह (जैनधर्म संघ) महाराज सम्प्रति के समय में आसीन था । जिन शासन के प्रति महाराज कुमारपाल की इस प्रकार की अट्ट आस्था, प्रगाढ़ श्रद्धा और "सब जग करू जिन शासन रसि" की भावना के परिणामस्वरूप प्रत्येक जैन धर्मावलम्बी के लिये परम श्रद्धा का पात्र बन गया । सोऽहम्म कुलरत्न पट्टावली-रासकार ने तो कुमारपाल को आगामी चौवीसी के प्रथम तीर्थंकर भगवान् पद्मनाभ का गणधर होने तक का उल्लेख करते हुए निम्नलिखित रूप में उसकी यशोगाथाओं का गान किया है
पारणा दिन गुरुराज ने रे दीधो शुद्ध आहार । ते उग्र पुण्य थी तूं हुप्रो रे, कुमारपाल नृप सार रे ।।राजन्० १५॥ पूरबभव सुणी थरथर्यो रे, कुमर नृपति मन मांहे । फरी पूछे गुरुराज ने रे पागल गति कुरण होय रे ॥राजन्० १८॥ सूरि तब मन चिन्तवी रे, देवी फेर बोलाय । सीमन्धर को मोकली रे, प्रभुजी सकल सुरणाय ॥राजन्० १६।। देवीइ श्री सूरिराज ने रे, सकल कह्यो अधिकार ।। तेथी गुरु कहे भूप ने रे, सांभल नृप सुविचार रे ॥राजन् २०॥ प्रावती चौवीसी माहे रे, पदमनाभ जिनराय। तेहनो गणधर तूं थई रे, लेस्यो शिवसुख दाय रे ॥राजन्० २१॥ मुझ भव संख्याता कह्या रे, सीमंधर भगवान् । केवलज्ञानी भाखियो रे, धन-धन केवलज्ञान ॥राजन्० २२॥२
इन पदों का सारांश यह है कि प्राचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि को महाराजा कुमारपाल ने प्रार्थना की कि वे उसे कृपा कर बतायें कि पूर्व भव में उसने ऐसा क्या पुण्य कार्य किया था, जिसके प्रताप से वह राजा बना है और अब अगले जन्म में उसका उद्धार कब होगा ।प्राचार्यश्रीने सूरिमन्त्र की अधिष्ठात्री देवी की आराधना की और उसके उपस्थित होने पर सीमंधर स्वामी से कुमारपाल और स्वयं के पूर्वभव एवं भावीकाल में मुक्त होने के सम्बन्ध में ज्ञात कर उन्हें (हेमचन्द्रसूरि को) अवगत करने का निवेदन किया। सूरिमन्त्र की अधिष्ठात्री देवी ने विहरमान तीर्थकर
१. आ. श्री हस्तीमलजी म. सा. का संग्रह । २. पट्टावली समुच्चय, भाग २, पृष्ठ -५०-५१ (मुनि श्री दर्शनविजयजी)
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