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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
करने के कार्य से शीलण द्वारा बड़ी बुद्धिमत्तापूर्वक विरत किये जाने के अनन्तर गुर्जर पति अजयदेव ने दिवंगत महाराजा कुमारपाल और स्वर्गस्थ हेमचन्द्रसूरि के प्रीतिपात्रों को यमधाम पहुंचाने का कार्य अपने हाथ में लिया । - अजयदेव ने परमार्हत कुमारपाल के परम विश्वासपात्र एवं स्वर्गीय आचार्यश्री हेमचन्द्र के परम प्रीतिपात्र लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् कपदि नामक मन्त्री को सर्व प्रथम छलछद्मपूर्वक यम का अतिथि बनाने के उद्देश्य से षडयन्त्र रचा । उसने कपर्दि मन्त्री को अपने पास बुलवा कर उसे महामात्यपद ग्रहण करने के लिये आग्रहपूर्ण अनुरोध किया। कपदि ने दूसरे दिन शकुन लेने के पश्चात् उत्तर देने का समय मांगा। दूसरे दिन प्रातःकाल कपदि मन्त्री शकुन लेने के लिए घर से निकला। दो चार डग आगे बढ़ते ही कपदि ने देखा कि एक हृष्ट-पुष्ट वृषभ हुंकार करता हुआ (नर्दन करता हुआ) अपने अग्रिम क्षुरानों से पृथ्वी का उत्खनन कर रहा है। इस शकुन को अपने अनुकूल समझकर मन्त्री कपर्दि बड़ा प्रसन्न हुा । मरुवृद्ध नामक शकुनशास्त्री को बड़े उत्साह के साथ अपना शकुन सुनाते हुए कपदि मन्त्री ने कहा :-"देखिये, इससे बढ़कर श्रेष्ठ शकुन क्या हो सकता है ?" शकुनशास्त्री ने कहा :-"मन्त्रिवर ! यह शुभ शकुन नहीं। आपके काल का सूचक बड़ा ही अशुभ शकुन है । इसका आशय यह है कि वृषभ यह बता रहा है कि इस मन्त्री कपदि के भस्मीभूत शव की भस्म अपने अंग-प्रत्यंग में रमा मेरे स्वामी भगवान् शंकर शीघ्र ही अपने शरीर की शोभा बढ़ायेंगे, यही सोचकर हर्षोन्मत्त हो वह वृषभ हर्षनाद कर रहा था।"
"मरुवृद्ध ! आज ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हारी बुद्धि कहीं घास चरने चली गई है।" इस प्रकार मरुवृद्ध के कथन की अवमानना करता हुआ कपर्दि मन्त्री महाराजा अजयदेव के समक्ष उपस्थित हो निवेदन करने लगा :
"महाराज ! आपका यह सेवक आपके आदेश को सहर्ष शिरोधार्य करने के लिये समुद्यत है।"
महाराजा अजयदेव ने तत्काल कपर्दि मन्त्री को विशाल गुर्जर राज्य के महामात्य पद पर नियुक्त करते हुए उसे महामात्य पद की मुद्रा प्रदान कर दी। महामात्यपद के कार्य-भार को सम्हाल कर घटिका पर्यन्त महामात्य कपर्दि अजयदेव से मन्त्रणा कर अपने घर लौट गया। वर्धापन देने वालों का महामात्य कपदि के घर तांता-सा लग गया। दिन बड़े ही ग्रामोद-प्रमोद एवं हर्षोल्लास के साथ व्यतीत हुआ । रात्रि में गुर्जरेश ने अपने महामात्य को मन्त्रणा के व्याज से बुलवा कर बन्दी बना लिया और आग पर खोलते हुए प्रतप्त तेल के कड़ाह के पास उसे खड़ा कर अपने अनुचरों से उसे अपमानित एवं प्रपीड़ित करवाने लगा।
अनेक भीषण युद्धों में अद्भुत शौर्य प्रदर्शित करते हुए सदा विजयश्री का वरण करने वाले महामात्य कपर्दि की मनोदशा उस समय ठीक उसी प्रकार की
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