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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ फेंक दिया। अपने चरण युगल में पहने हुए उपानहों को उसने तत्काल एक ओर डाल दिया । वह तत्काल बिना किसी की ओर देखे अपने उए 'य की ओर चल दिया। अपने गुरु के पास उसने अपने पापों की विशुद्ध मन से आलोचना कर उनके पास उसने पुनः पंच महाव्रतों को अंगीकार किया । उसका रोम-रोम, अन्तर्मन, वैराग्य के प्रगाढ़ रंग में रंग गया। उसने कठोर तपश्चर्याएं करना प्रारम्भ किया। वह घोर तपस्वी अहर्निश स्वाध्याय, ध्यान और गुरु की सुश्रूषा में संलग्न रहने लगा। उस श्रमण के त्याग, विराग और कठोर तपश्चरण की दिग्दिगन्त में कीत्ति व्याप्त हो गई । उसकी गणना उस समय के श्रमणोत्तमों में की जाने लगी। परमार्हत कुमारपाल ने जब उस तपस्वी श्रमण की यशो-गाथा सुनी तो वह स्वयं उस तपोपूत महात्मा के दर्शन वन्दन एवं चरण-स्पर्श के लिये अन्तःपुर के साथ उस तपस्वी के उपाश्रय में गया । उस तपस्वी के मुख पर प्रथम दृष्टिनिपात से ही राजा को भली-भांति स्मरण हो पाया कि यह वही साधु है, जिसे उसने एक वारांगना के द्वार पर चरित्रभ्रष्ट देखते हुए भी वन्दन-नमन किया था । महाराज कुमारपाल उस मुनि के गुरु को और अन्य मुनियों को वन्दन करने के पश्चात् उसके चरणों पर अपना भाल रखने के लिये झुका । उस तपोधन मुनि ने कुमारपाल का हाथ पकड़ कर उसे नमन करने से रोका और अतीव कृतज्ञतापूर्ण स्वर में बोला-"राजन् ! इस संसार सागर में डूबते हुए मेरे जैसे अधम को तारने वाले आप मेरे गुरु हैं । वस्तुतः आप विश्ववंद्य हैं । आपका प्रणाम मेरे लिये अजीर्ण एवं दुष्पाच्य ही होगा। नर्क के अन्धकूप में जान बूझकर झम्पापात करने वाले मेरे जैसे जिनाज्ञा विराधक और भ्रष्ट चरित्र वन्दनीय आराधक कैसे हो सकते हैं ? इहलोक और परलोक में दुःखदायी पाप मार्ग से मुझ जैसे अधम को उबारने वाले आप जैसे पितातुल्य उपकारी संसार में विरले ही हैं । नमस्कार के लिये नितान्त अयोग्य मेरे जैसे दुष्चरित्र पातकी को नमस्कार कर आपने मेरे अन्तर्ह द में सम, संवेग और निर्वेद की त्रिवेणी प्रवाहित कर दी है।"
कुमारपाल ने श्रद्धासिक्त अति विनम्र स्वर में उन तपोनिष्ठ मुनि से निवेदन किया- "मुनिवर ! आपके समान वन्दनीय और कौन होगा, जिन्होंने एक छोटे से निमित्त को पाकर तत्क्षण अपने आपको सब प्रकार की आसक्ति, सब प्रकार के दोषों और अनन्त काल तक भव भ्रमण कराने वाले व्यामोह को प्रत्येक बुद्ध की भाँति एक क्षण भर में ही विषवत् त्याग दिया-तृण तुल्य ठुकरा दिया। भगवान् तीर्थंकर द्वारा बताये गये साधु स्वरूप को मेरा प्रणाम करना सहज स्वाभाविक ही था । उस छोटी सी बात को मेरा उपकार समझकर आप अपने कृतज्ञ शिरोमणि स्वभाव को ही प्रदर्शित कर रहे हैं।" इस प्रकार कहते हुए महाराज कुमारपाल ने इससे पहले कि मुनि उन्हें रोकें अपना भाल मुनि के चरणों पर रख दिया । उस तपोधन मुनि के अंतःकरण से हठात् ये उद्गार प्रस्फुटित हो उठे-"धन्य है वह देश, पुण्यशालिनी है वह प्रजा, जहां दर्शन मात्र की अमृतवृष्टि से समस्त पापपंक को धो डालने वाले पाप जैसे राजा हैं।
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