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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] महाराजा कुमारपाल
[ ४१५ अपने राज राजेश्वरत्व के अभिमान को जलांजलि दे हेमचन्द्रसूरि के चरणों में अपना मस्तक रखते हुए अति विनम्र स्वर में कहा- "अाज्ञा कीजिये भगवन् !"
कुमारपाल ने उसी समय जीवन भर के लिये मांस और मदिरा का त्याग कर दिया । तदनन्तर आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि और कुमारपाल दोनों ही गर्भगृह से निकल कर सोमेश्वर के मन्दिर से बाहर आये और उन्होंने पत्तन की ओर प्रयाण कर दिया।
कुमारपाल को सम्यक्त्व प्राप्ति
सोमेश्वर से प्रणहिल्लपुर पट्टण आने के पश्चात् कुमारपाल नित्य नियमित रूप से प्राचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि के प्रवचनों को सुनने लगा। स्वल्प काल में ही उसे जिनवारणी के श्रवण से जैन धर्म पर प्रगाढ़ श्रद्धा हो गई। सर्वप्रथम महाराज कुमारपाल ने अपने सम्पूर्ण राज्य में अमारि की घोषणा करवा दी।
कालान्तर में उसने श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किये । एक समय अदत्तादान विरमण नामक तृतीय व्रत के विवेचन को प्राचार्य श्री के मुख से सुनते ही कुमारपाल ने तत्काल अपुत्रक मृति कराधिकारी (अपुत्रावस्था में मृत नागरिक की सम्पत्ति को मृति कर के रूप में राज्यकोषायत करने वाले कराधिकारी) को बुलाया और इस प्रकार के कर को निरस्त करने की आज्ञा प्रदान करते हुए महाराज कुमारपाल ने इस प्रकार के कर की आनुमानित वसूली के ७२ लाख रजतमुद्राओं की राशि के पत्रों को तत्काल नष्ट कर दिया।
इस कर के निरस्त किये जाने पर कुमारपाल की यशोगाथाएं दिग्दिगन्त में निम्नलिखित श्लोक के रूप में गुजरित हो उठी :
अपुत्राणां धनं गृह रणन्, पुत्रो भवति पार्थिवः । त्वं तु सन्तोषतो मुचन, सत्यं राजपितामह ।।
अर्थात् पुत्र विहीन लोगों के मरने पर उनके धन को ग्रहण करने वाला राजा उस मृतक का पुत्र हो जाता है। किन्तु हे कुमारपाल ! तुमने सन्तोष धारण कर इस प्रकार के धन को ठुकरा दिया है। अतः तुम सही अर्थों में राजपितामह हो।
पुत्र विहीन नागरिक की मृत्यु हो जाने के अनन्तर उसके धन को मृतिकर के रूप में राज्य द्वारा ले लिये जाने विषयक गुर्जर राज्य के विधान को महाराज कुमारपाल ने किस कारण निरस्त किया, इस सम्बन्ध में आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि द्वारा रचित "याश्रय काव्य" प्रकाश डालता है, जो इस प्रकार है :---
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