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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
को स्वीकार नहीं किया तो कुमारपाल ने स्पष्ट शब्दों में राजाज्ञा प्रसारित करवा : दी कि जो चतुर्दशी के स्थान पर पूर्णिमा के दिन प्रतिक्रमण करना चाहते हैं, वे अणहिल्लपुर पट्टण छोड़कर चले जायं । उस समय पूर्णिमा पक्ष के प्राचार्य सम्भवतः श्री देवभद्रसूरि ने अपने पक्ष पर अडिग रहते हुए अपने आन्तरिक उद्गार अपने अनुयायियों के समक्ष इस रूप में रक्खे :
रूसउ कुमर नरिंदो, अहवा रूसंतु लिंगिणो सव्वे ।।
पुन्निम सुद्ध पयट्ठा, न हु चत्ता सम्मत्त सूरीहिं ।।३३।।'
उपाध्याय धर्म सागर ने प्रवचन परीक्षा में उपर्युक्त गाथा को इस रूप में रखा है :
रूसउ कुमर नरिंदो, अहवा रूसउ हेम सूरिंदो ।
रूसउ य वीर जिरिंगदो, तहा वि मे पुष्णिमापक्खो ।। अर्थात् चाहे महाराजा कुमारपाल रुष्ट हो जायं, चाहे हेमचन्द्र सूरीश्वर रुष्ट हो जाएं, केवल यहीं तक नहीं, अपितु स्वयं भगवान् वीर जिनेश्वर भी रुष्ट हो जायं तो भी मैं पूर्णिमा को ही पाक्षिक प्रतिक्रमण करूगा ।
___ "रूसउ य वीर जिरिंगदो" ऐसा तो कोई भी जैन किसी भी दशा में नहीं कह सकता। अपने विरोधी पूणिमा गच्छ को लोगों की दृष्टि में नीचे गिराने के लक्ष्य से ही धर्मसागर गरिण ने सम्भवतः ऐसा लिख दिया है।
.... महाराजा कुमारपाल के पास जब पूर्णिमा पक्ष के प्राचार्य के इस प्रकार के हठांग्रह की बात पहुंची तो वह बड़े प्रकुपित हुए और पूर्णिमा पक्ष के इस प्राचार्य को कड़ा दण्ड देने के लिए उद्यत हुए । आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने निम्नलिखित उल्लेख के अनुसार कि
"ततः श्री (हेम) सूरिणा प्रवचनोड्डाहं चेतस्यवधृत्य रोषादुपशामितेन राज्ञा (कुमारपालेन) निज राज्याद् अष्टादश देशेभ्यो निष्काशितः पूर्णमीयकः । प्रवचन परीक्षा, विश्राम ६।"
प्राचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि ने मन में यह विचार कर कि यदि राजा ने पौर्णमीयक गच्छ के प्राचार्य और उनके श्रमण समूह को किसी प्रकार का कठोर दण्ड दिया तो प्रवचन का उड्डाह होगा, जैन धर्म संघ की प्रतिष्ठा लोक दृष्टि में घटेगी, कुमारपाल को शांत किया। आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि के समझाने पर
१. प्रागमिक गच्छ पट्टावली (पूर्णिमा गच्छ पठ्ठावली का अपर नाम)
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