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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ - अपने शिष्य आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि और चालुक्य राज कुमारपाल को इस प्रकार उत्तर दे आचार्यश्री देवचन्द्रसूरि ने अरणहिल्लपुर पट्टण से विहार कर दिया, और विहार क्रम से जहां से आये थे वहीं लौट गये।
__ महाराज कुमारपाल के जीवन के सम्बन्ध में उपरि वणित विवरणों से निम्नलिखित तथ्य प्रकाश में आते हैं :
(१) आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि के उपदेशों से महाराज कुमारपाल को बोधि प्राप्त हुई और उन्होंने श्रावक के बारह व्रत धारण किये ।' .
(२) परम जिनभक्त महाराज सम्प्रति के पश्चाद्वर्ती काल में हुए जिनभक्त राजाओं से अहिंसा की उपासना में अत्यधिक आगे बढ़कर महाराज कुमारपाल ने अपने अधीनस्थ १८ देशों में अमारि की घोषणा के साथ-साथ जिन-शासन का प्रचार-प्रसार किया ।
(३) अपने अधीनस्थ १८ देशों के सुविशाल भूखण्ड में उसके द्वारा घोषित अमारि का अक्षरशः पालन होता है कि नहीं इस बात की देखरेख के लिये उसके द्वारा की गई व्यवस्था ऐसी सर्वांगपूर्ण और सुदृढ़ थी कि साधारण से साधारण निरीह प्राणी की हिंसा तक की सूचना स्वयं महाराज कुमारपाल तक पहुंच जाती थी।
(४) जिन शासन के अभ्युदय, उत्कर्ष, प्रचार-प्रसार एवं समस्त भूमण्डल पर विस्तार की कुमारपाल के मन में इस प्रकार की अत्युत्कट उत्कण्ठापूर्ण अभिलाषा थी कि यदि उसके पास स्वर्ण के सुमेरु होते तो जगज्जीवों को सुखी करने, जिनधर्म-रसिक बनाने एवं जैनधर्म के प्रमुख सिद्धान्त अहिंसा, सत्य, अस्तेय, विश्वबन्धुत्व आदि को जन-जन के जीवन में ढालने हेतु उन स्वर्ण-सुमेरुओं को भी वह सहर्ष न्यौछावर कर देता । स्वर्ण सिद्धि की आकांक्षा का जो कथानक आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि और कुमारपाल के सम्बन्ध में जैन साहित्य में शताब्दियों से चला आ
१. इय अणहिल्लपुरम्मि य जयसिंह नरिंद पट्टलंकारो ।
सिरि कुमरपाल राम्रो जाओ भूपाल मउडमणी ॥१०६।। सिरि हेमसूरि गुरुणा पडिबोहिय वयण सुरस दाणेणं ।
जिणभत्ति जुत्तिरत्तो, जामो सुसावो परमो ।।१०७॥ २. अट्ठारदेसमझे, अमरि उग्धोसणं पवट्टेइ ।।
सो जीवदयातप्पर, परिपालइ देसविरइं च ॥१०८।। -श्री वीरवंश पट्टावली अपर नाम विधिपक्षगच्छ पट्टावली भावसागर सूरि विरचिता।
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