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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
मसल कर मार डाला था। इस बात का मुझे पश्चात्ताप हो रहा है और मैं अपने इस दोष का प्रायश्चित्त करने के लिये व्यग्र हूं। मैंने जैन कुल में जन्म लिया है, जैन संस्कारों में मेरा पालन-पोषण एवं संवर्द्धन हुआ है। यदि अमारि की घोषणा नहीं होती तो भी मुझे एक जैन होने के नाते किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिये थी। अमारि की घोषणा के अनन्तर तो मैंने हास्यास्पद भावावेश में इस प्रकार की साधारण जीवहिंसा कर वस्तुतः राजाज्ञा के उल्लंघन का अपराध किया है । मैं दण्ड का भागी हूं।"
___ महाराज कुमारपाल ने कहा-"पाप का प्रायश्चित्त पुण्यार्जन से होता है। तुम्हारे द्वारा उपाजित द्रव्य से एक विहार का निर्माण करवा दिया जाय, यही तुम्हें राजाज्ञा के उल्लंघन का दण्ड है । उस विहार में चिरकाल तक धर्माराधन होता रहेगा और उससे तुम्हें पुण्य का लाभ होगा।"
. सपादलक्ष देश के उस श्रेष्ठी ने राजादेश को सहर्ष स्वीकार करते हुए विहार-निर्माण हेतु विपुल धनराशि दण्ड के रूप में राज्य के निर्माण प्राधिकरण को समर्पित की और उस धनराशि से पत्तन में एक विशाल एवं भव्य विहार का निर्माण करवाया गया। उस विहार का नाम "यूका-विहार" रखा गया। इससे कुमारपाल की अहिंसा के प्रति प्रगाढ़ प्रीतिपूर्ण आस्था के साथ-साथ उसकी सुन्दर ठोस एवं प्रभावपूर्ण शासन व्यवस्था प्रणाली का भी परिचय प्राप्त होता है।
कुमारपाल ने स्वयं द्वारा अज्ञातावस्था में हुई जीव हिंसा के लिये भी इसी प्रकार का प्रायश्चित्त करते हुए अपनी राजसभा में कहा-"वन में भटकते समय मैंने एक मूषक द्वारा अपने बिल के बाहर रखी गई उसकी २० रजत मुद्राओं को उठा लिया था। अपने धन के अपहरण से उस मूषक के हृदय पर ऐसा गहरा आघात हुआ कि वह तत्काल छटपटा कर मर गया। मेरे कारण उस मूषक की मृत्यु हुई अतः अपने उस पाप के प्रायश्चित्तस्वरूप मेरे अपने द्रव्य से एक विशाल विहार का निर्माण करवाया जाय और उस विहार का नाम “मूषक-विहार" रखा जाय । “अपने इस संकल्प के अनुसार महाराज कुमारपाल ने अनहिलपुर पत्तन में अपने निजी कोष से एक भव्य 'मूषक-विहार' का निर्माण करवाया।
कुमारपाल की कृतज्ञता के अनेक उदाहरण ऊपर बताये जा चुके हैं । साधारण से साधारण उपकार करने वाले के प्रति भी उसने कृतज्ञता प्रकट की इसका ज्वलन्त प्रमाण है कुमारपाल द्वारा बनवाया गया "करम्ब-विहार"। अपने प्राणों की रक्षा के लिये कुमारपाल जिस समय वन-वन में भटक रहा था, उस समय तीन दिन तक उसे कहीं भोजन नहीं मिला था। उस समय श्वसुर गृह से अपने पितृगृह को पालकी में बैठकर जा रही एक ईभ्य कुल की महिला ने तीन दिन के भूखे कुमारपाल को अति स्वादिष्ट करम्ब आदि पक्वान्न का भोजन करवाया था।
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