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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
महाराजा कुमारपाल
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परमार्हत् महाराजा कुमारपाल ने अपने अधीनस्थ अट्ठारह देशों में चौदह वर्ष के लिये प्रमारि की घोषणा कर जैनधर्म के आधारभूत सिद्धान्त अहिंसा के प्रति जन-जन के मन में अनुराग उत्पन्न किया । इस प्रकार का प्राणी मात्र के प्रति करुणा एवं मैत्रीभाव का उदाहरण अनेक शताब्दियों के भारत के इतिहास में अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। उन १८ देशों में कुल मिलाकर चौदह सौ चालीस अति भव्य विहारों का निर्माण भी कुमारपाल ने करवाया । उन १८ देशों के नाम इस प्रकार हैं
-:
कर्णाटे, गुर्जरे, लाटे, सौराष्ट्र, कच्छ, सैन्धवे । उच्चायां चैव भम्भेर्यां, मारवे, मालवे, तथा ॥१॥ कौंकणे च, महाराष्ट्र, कीरे, जालन्धरे पुनः । सपादलक्षे, मेवाड़े, दीपाभीराख्ययोरपि ॥२॥
चालुक्य चूड़ामणि महाराजा कुमारपाल द्वारा अपने अधीनस्थ १८ देशों में की गई प्रमारि की घोषणा ऐसी सुन्दर ठोस एवं अनुल्लंघनीया थी और उस प्रमारि की परिपालना के लिये उसने अपने शासित विशाल भू-भाग पर इस प्रकार की सुदृढ़ एवं पूर्ण संवेदनशील व्यवस्था की थी कि छोटे से छोटे जीव-जन्तु तक को उस
मारि की घोषणा के पश्चात् जान-बूझ कर मारने पर अपराधी को तुरन्त दण्डित कर दिया जाता था। छोटे से छोटा अपराधी भी दण्ड से बच नहीं सकता था । इसका एक बड़ा ही रोचक एवं ऐतिहासिक तथ्य के रूप में परिपुष्ट प्रमाण विक्रम सं० १३६१ की, एक लब्धप्रतिष्ठ प्राचार्य मेरुतु गसूरि की कृति, प्रबन्ध चिन्तामरिण में आज भी उपलब्ध है ।
अपने अधीनस्थ १८ देशों में कुमारपाल द्वारा उपर्युल्लिखित प्रमारि की घोषणा किये जाने के कुछ ही समय पश्चात् की घटना है कि सपादलक्ष देश के एक धनी-मानी श्रेष्ठि ने केशसम्मार्जन के समय अपनी पत्नी द्वारा उसके हाथ में रखी गई यूका (जूँ) को यह कहते हुए मसल कर मार डाला कि इसने मेरी प्रिया को बड़ी पीड़ा पहुंचाई है । उस यूका के मारने की बात स्थानीय पंचकुल (पंचायत) के प्रधान एवं सदस्यों को बालकों अथवा औौर किसी के माध्यम से तुरन्त ज्ञात हो गई। पंचों ने तत्काल उस श्रेष्ठि से पूछा कि क्या उसने यूका को जान-बूझ कर मारा है ? श्रेष्ठि द्वारा अपना दोष स्वीकार किये जाने पर पंचकुल उस श्रेष्ठि को अपने साथ ले अन हिलपुर पत्तन पहुंचा और उसने उसे महाराज कुमारपाल के समक्ष उपस्थित किया ।
कुमारपाल ने श्रेष्ठि से प्रश्न किया :- "क्या यह सच है कि अमारि की घोषणा के उपरान्त भी जान-बूझ कर तुमने एक छोटे से निरीह, मूक प्रारणी की हिंसा की है ?"
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श्रेष्ठि ने अपना दोष स्वीकार करते हुए कहा- "हां, महाराज ! मैंने . विनोदपूर्ण मुद्रा में अपनी प्राणेश्वरी को प्रसन्न करने के लिये उस छोटे से प्रारणी की
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