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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ हाथ जोड़कर कहा :-"नहीं महाराज! इधर तो कोई नहीं आया।" राजा के सैनिक तत्काल किसी और दिशा की ओर कुमार की खोज में चल पड़े। कुछ क्षणों तक वहीं छिपे रहकर कुमार सावधानीपूर्वक आव से बाहर निकला और नगर के बाहर वन की ओर द्रुतगति से झाड-झंखाडों और वृक्षों की प्रोट में छिपता हुआ एक किसान के खेत में पहुंचा । वहां बहुत से किसान अपने खेतों की रक्षा के लिये बाड निर्माण हेतु कटीले वृक्षों की लम्बी-लम्बी टहनियों की एक विशाल राशि तैयार कर रहे थे, कुमार चुपचाप उस कंटकराशि के नीचे छिप गया । उसका शरीर कंटकों से बिंध गया किन्तु उसने साहसपूर्वक उस कष्ट को सहन किया। राजा के सुभट जो सब ओर कुमारपाल की खोज में घूम रहे थे, उनमें से कतिपय सुभट उस किसान के पास भी आये। खेत में चारों ओर उन्होंने वृक्षों आदि में सावधानीपूर्वक कुमारपाल की खोज की । कटीली झाड़ियों के उस बड़े ढेर को भी उन्होंने अपने तीक्ष्ण भाले ढेर में घुसेड़-घुसेड़ कर देखा पर कुमारपाल श्वांस रोके चुपचाप उस कांटे के ढेर के नीचे छिपा रहा । राजा के सैनिक हताश होकर वहां से भी लौट गये । सैनिकों के चले जाने के पश्चात् उन किसानों ने रात्रि के अन्धकार में कुमारपाल को उस कंटक राशि से बाहर निकाल कर अशन पानादि से तृप्त कर वहां से विदा किया । वृक्षों और लतागुल्मों की प्रोट में छिपता हुआ कुमारपाल दो दिन और दो रात तक निरन्तर चलता रहा और तीसरे दिन प्रणहिल्लपुर पट्टण से बहुत दूर एक घने जंगल में पहुंचा । सूर्य की प्रखर किरणों से सन्तप्त और इतनी लम्बी दौड़ भाग के परिश्रम से क्लान्त कुमारपाल एक वृक्ष की छाया में बैठ गया। वहां उसने देखा कि एक चूहा अपने मुह में एक रौप्य मुद्रा लिये अपने बिल से बाहर निकला और उस रौप्य मुद्रा को एक ओरे रख कर पुनः बिल में प्रविष्ट हो गया । थोड़ी ही देर के पश्चात् वह पुनः दूसरी रौप्य मुद्रा लिये बिल से बाहर निकला और उसे भी पहली मुद्रा के पास रख कर पुनः बिल में प्रविष्ट हो गया। इस प्रकार वह चूहा २१ बार एक-एक रौप्य मुद्रा अपने मुह में लिये बिल से बाहर आता रहा और उन सब मुद्राओं को क्रमश: एक-दूसरी मुद्रा के पास रखता रहा । अन्त में वह पहली मुद्रा को मुख से पकड़ कर बिल में प्रविष्ट हो गया। कुमारपाल यह देख कर अपने स्थान से उठा और उन अवशिष्ट बीसों ही मुद्राओं को उठा कर एक वृक्ष की अोट में बैठ उस बिल की ओर देखने लगा। उसने देखा कि कुछ ही क्षणों में वह चूहा पुनः अपने बिल से बाहर लौटा और जिस स्थान पर उसने रौप्य मुद्राएं रखी थीं, उस स्थान पर उन मुद्राओं को न देख कर इतस्ततः उन मुद्राओं की बड़ी ही व्यग्रतापूर्वक खोज करने लगा। अन्ततोगत्वा जब उसे वे मुद्राएं नहीं मिली तो वह इधर-उधर लौट-पोट हो छटपटा कर मर गया। इस प्रकार चूहे को मरा हुआ देखकर कुमारपाल बड़ा दुःखित हुआ और मन ही मन सोचने लगा कि अपने स्वायत्त द्रव्य के प्रति एक अबोध वन्य जन्तु को भी कितना प्रगाढ़ मोह होता है । उसे स्वयं को भी अपना घर-द्वार ही नहीं सर्वस्व तक छोड़ कर वन-वन की, दर-दर की ठोकरें खाने के लिये बाध्य होना पड़ा है। इस प्रकार भारी मन लिये वह उस
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