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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
हम आपका हार्दिक वृर्द्धापन करते हैं ।" इस प्रकार वर्द्धापन के अनन्तर स्वर्णपात्र भरकर देवबोध ने राजा के हाथ में समर्पित किया । यह देखकर सिद्धराज जयसिंह के आश्चर्य का पारावार नहीं रहा कि वह स्वर्णपात्र मदिरा से नहीं दूध से भरा है । राजा ने उस पात्र को प्रोष्ठों से छूआ और उसे अमृत तुल्य मीठा स्वादयुक्त पाकर पीलिया | अदृष्ट शक्ति से परावर्तित उस पेय को पी लेने के अनन्तर भी राजा यह निश्चय नहीं कर सका कि वह दूध था अथवा मद्य । राजा ने मन ही मन विचार किया कि यदि इसने वस्तुतः मदिरा को दूध के रूप में परिवर्तित कर दिया है तो यह भी एक इसकी अद्भुत् शक्ति ही है । तदनन्तर महाराज सिद्धराज जयसिंह अपने राजप्रासाद की ओर और देवबोध अपने निवासस्थान की ओर प्रस्थित हुए ।
प्रातःकाल राजसभा में उपस्थित होकर कवि देवबोध ने महाराज जयसिंह से निवेदन किया :-" - "महाराज ! मैं तीर्थयात्रा करना चाहता हूं इसलिये आपसे पूछने आया हूं ।” महाराज जयसिंह को देवबोध से घृणा हो गई थी । इस तथ्य से देवबोध भी पूर्णतः परिचित हो गया था। दोनों के बीच परस्पर रहस्यपूर्ण ढंग से वार्तालाप हु । यद्यपि सिद्धराज नहीं चाहते थे कि इस प्रकार का भ्रष्ट चरित्र कवि उनके वहां रहे तथापि सभा के समक्ष कृत्रिम भक्ति प्रकट करते हुए उन्होंने कहा :- " राजा लोग तो निर्मल चारित्र वाले मुनियों के कृपा प्रसाद से ही पृथ्वी का पालन करते हैं इसलिये हे मुनीश्वर ! मेरी ग्रापसे यही प्रार्थना है कि प्राप मेरे देश के अन्दर ही रहें । महात्मा अपने श्रद्धालु भक्तों की प्रार्थना को कभी नहीं ठुकराते । आप मेरी प्रार्थना को स्वीकार करें। मेरे राज्य के अन्दर ही रहे ।"
महाराज सिद्धराज जयसिंह की इस प्रकार ग्रनुनय विनयपूर्ण प्रार्थना को सुनकर मुनि देवबोध बड़ा प्रसन्न हुग्रा और अपने ग्राश्रम में ही रहने लगा । वस्तुतः सिद्धराज जयसिंह को देवबोध से पूरी तरह घृणा हो गई थी अतः देवबोध को पहले जो भेंट राजकोष से मिलती थी वह बन्द कर दी गई। राजकोष से आने वाली प्राय के प्रभाव में मुक्तहस्त हो अत्यधिक व्यय करने वाले देवबोध की ग्रार्थिक स्थिति उत्तरोत्तर विगड़ती ही गई और शनै-शनै वह ऋरण के भार से दब गया और स्वयं के तथा ग्रनुचरों के उदरपोपण के लिये उसे भिक्षावृत्ति का सहारा लेना पड़ा ।
अपने चरों के माध्यम से प्रज्ञाचक्षु कवि श्रीपाल को भागवत् मुनि देवबोध की दुरवस्था के समाचार प्रतिदिन' ज्ञातं होते रहते । एक दिन कवि श्रीपाल ने प्राचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि की सेवा में उपस्थित होकर निवेदन किया :- "भगवन् ! इस समय उस दुष्चरित्र ग्रहम्मानी भागवत् मुनि देवबोध की प्रार्थिक स्थिति प्रत्यन्त दयनीय हो चुकी है । उसे भिक्षावृत्ति में मिले रूखे सूखे ग्रन्न से उदरपोषण करना पड़ता है | मेरा सुनिश्चित अनुमान है कि ग्रब वह ग्रापके पास ग्रावेगा और आपके माध्यम से राजकोष से अपनी आवश्यकतानुसार द्रव्य प्राप्त करने और अपने ऋण के भार से मुक्त होने का प्रयास करेगा । मेरी ग्रापसे यही प्रार्थना है कि इस प्रकार
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