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श्रमण भगवान महावीर के ५१वें पट्टधर आचार्यश्री देवऋषि (द्वितीय) और ५२वें पट्टधर आचार्यश्री सूरसेन
के प्राचार्य काल की राजनैतिक स्थिति
गूर्जराधीश श्री सिद्धराज जयसिंह श्रमण भगवान् महावीर के इक्कावनवें पट्टधर आचार्यश्री देवऋषि वीर निर्वाण सम्वत् १५८६ में जब प्राचार्यपद पर आसीन हुए उस समय विशाल गुर्जर राज्य के राजसिंहासन पर चालुक्यराज भीम आसीन थे। आचार्यश्री देवऋषि के प्राचार्यपद पर आरोहण के दूसरे वर्ष वीर निर्वाण सम्वत् १५६० में महाराजा भीम का वीर निर्वाण सम्वत् १५४८ से १५६० तक विशाल गुर्जर राज्य का ४२ वर्ष तक शासन करने के अनन्तर देहावसान हो गया। तदनन्तर वीर निर्वाण सम्वत् १५६० में महाराजा भीम के पश्चात् महाराजा कर्ण चालुक्य राज्य के राज सिंहासन पर आरूढ़ हुए।
महाराजा कर्ण ने वीर निर्वाण सम्वत् १५६० से १६२० की पौष कृष्णा दूज पर्यन्त २६ वर्ष, ८ मास और २१ दिन तक गुर्जर राज्य पर शासन करने के अनन्तर अपने तीन वर्ष की वय के पुत्र सिद्धराज जयसिंह को विक्रम सम्वत् ११५० की पौष कृष्णा तृतीया शनिवार के दिन श्रवण नक्षत्र तथा वृष लग्न में गुजरात राज्य के राज सिंहासन पर अभिषिक्त कर दिया।
.. अपने अल्प वयस्क राजकुमार जयसिंह को पट्टण के राज्य सिंहासन पर आसीन करने के अनन्तर महाराजा कर्ण ने आशापल्ली के दुर्दान्त भिल्लराज आशा पर आक्रमण कर उसे युद्ध में परास्त किया। आशापल्ली पर अपना आधिपत्य स्थापित कर कर्ण ने वहां अपने नाम पर कर्णावतीपुर नामक नगर बसाया और स्वयं वहां राज्य करने लगे । अपने नवीन राज्य का सुचारू रूप से संचालन करते हुए महाराज अपने पुत्र जयसिंह के विशाल पट्टण राज्य का भी उनके वयस्क होने तक संरक्षण करते रहे। उन्होंने कर्णावती पुरी के पास कर्णेश्वर देव का विशाल मन्दिर और उसके पास ही कर्ण सागर नामक एक विशाल तालाब का निर्माण करवाया।
महाराजा कर्ण के परलोक गमन के अनन्तर आशापल्ली-कर्णावती का सशक्त समृद्ध राज्य भी महाराजा जयसिंह के विशाल गुर्जर राज्य में सम्मिलित
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