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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
हेमचन्द्रसूरि
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के दुष्चरित्र एवं अभिमान के मूर्त स्वरूप पतित मुनि की, दुःखपूर्ण दुरवस्था से द्रवित हो जाने वाले आप, किसी भी प्रकार की सहायता न करें। महाराज सिद्धराज जयसिंह को भूमि पर बिठाकर और स्वयं उच्च आसन पर बैठकर उपदेश करने वाले उस अभिमानी को उसके दुराचार का फल मिल रहा है। मुझे अपने चरों से विदित हना है कि अब एकमात्र आप ही उसके आशा केन्द्र रहे हैं। अपने अनुचरों से वह यह कहता सुना गया है कि अब तो राजमान्य हेमचन्द्रसूरि के अतिरिक्त मुझे ऋण से मुक्त करा देने वाला और कोई दृष्टिगोचर नहीं होता। मैं तो यही समुचित समझता हूं कि इस प्रकार के घूर्त एवं छद्म मुनि की किसी भी प्रकार की सहायता नहीं की जानी चाहिये । क्योंकि ऐसे पतित का कोई भी विज्ञ मुह तक भी देखना नहीं चाहता।"
कवि श्रीपाल के मुख से भागवत् मुनि देवबोध के सम्बन्ध में सब बातें ध्यानपूर्वक सुनने के अनन्तर प्राचार्यश्री हेमचन्द्र ने कहा :--"कविराज ! आपने जो कुछ कहा है वस्तुतः वह ठीक ही कहा है। पर वास्तविकता यह है कि आज देवबोध के समान सरस्वती का वरप्राप्त विद्वान् अन्यत्र कोई दृष्टि-गोचर नहीं होता । हम तो उसके एक इसी गुण पर मुग्ध होने के कारण उसका सम्मान करते हैं । यदि वह विषविहीन सर्प की भांति म्लान मुख हो हमारे पास आता है और अपने अभीष्ट की पूत्ति में असफल रहता है तो अन्य किस स्थान से उसे सहायता प्राप्त हो सकती है ? क्योंकि उसकी अपकीत्ति सर्वत्र व्याप्त हो चुकी है।"
___ कविराज श्रीपाल ने प्रत्युत्तर में निवेदन किया :-"महर्षिन् ! मैंने तो अपने अन्तर्मन की बात आपके सन्मुख रख दी। आप सब के पूज्य और ज्ञान के निधान हैं । आप अपनी गरिमा के अनुसार फिर जैसा उचित समझे वही करें।" ।
दूसरे ही दिन मध्याह्नकाल में क्षुधातुर भागवत् मुनि देवबोध हेमचन्द्रसूरि के उपाश्रय के द्वार पर उपस्थित हुआ । प्रतिहार ने ज्यों ही आकर प्राचार्यश्री हेमचन्द्र को देवबोध के आने की सूचना दी, वे अपने प्रासन से उठ खड़े हुए और सुधासिक्त मृदु स्वर में बोले :-"स्वागतम् ! आइये आइये सरस्वती लब्ध वर प्रसाद ! विद्वद्वरेण्य ! मेरे इस अर्धासन पर बैठिये ।" १
अपने युग के एक महान् आचार्य द्वारा प्रकट किये गये सम्मान से भागवत् मुनि देवबोध गद्-गद् हो उठा । उसने मन ही मन यह विचार किया-"निश्चित रूप से मेरे मर्म की बातों से ये भली-भांति अवगत हैं । या तो किसी ने मेरे विषय में इन्हें सब कुछ बता दिया है अथवा ये अपने प्रज्ञातिशय से स्वयमेव जान गये हैं। कुछ भी हो। यह अपने समय के उच्च कोटि के विद्वान् हैं। आज के युग में ऐसा कौन है
१. प्रभावक चरित्र, हेमचन्द्रसूरि का प्रकरण ।
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