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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
उसके लिये सबसे बड़ा अपमान है । इसलिये अब दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र का किसी की ओर से किंचित्मात्र भी तिरस्कार नहीं किया जाय ।"
सिद्धराज जयसिंह ने कहा :- " महर्षिन् ! आपके उदार प्रदेश के अनुसार ही सब कुछ किया जायगा ।"
देवसूरि की अद्भुत वादशक्ति, उनके तर्क कौशल और प्रकाण्ड पांडित्य पर अपार हर्ष प्रकट करते हुए सिद्धराज जयसिंह ने एक लाख स्वर्णमुद्रात्रों का तुष्टिदान देवसूरि को प्रदान करना चाहा किन्तु देवसूरि ने विपुल द्रव्यदान को अस्वीकार करते हुए कहा :- "राजन् ! हम निर्ग्रन्थ निस्पृह साधुत्रों के लिये द्रव्य का स्पर्श करना तक निषिद्ध है ।"
तदनन्तर देवसूरि राजा एवं राजसभा से विदा ले अपने अनुयायियों के विशाल जन समूह के बीच अपने उपाश्रय की ओर प्रस्थित हुए । चालुक्यराज के आदेश से राजकीय ठाट-बाट के साथ विविध वाद्य यन्त्रों के घोष के बीच राज्यसभा के सभासद् जयघोष करते हुए महोत्सवपूर्वक देवसूरि को उनके उपाश्रय तक पहुंचाने गये । दो महान् आचार्यों के बीच हुए इस शास्त्रार्थ के समय कलिकाल सर्वज्ञ के विरुद से विभूषित श्री हेमचन्द्राचार्य भी उपस्थित ये ।' उन्होंने देवसूरि की इस विजय के उपलक्ष्य में निम्नलिखित रूप में अपने उद्गार अभिव्यक्त किये :
यदि नाम कुमुदचन्द्र नाजेष्यद् देवसूरिरहिमरुचिः । कटिपरिधानमधास्यत् कतमः श्वेताम्बरो जगति ।। २५१ । ।
अर्थात् यदि महाप्रतापी देवसूरि कुमुदचन्द्र को पराजित नहीं करते तो इस आर्यधरा पर क्या कोई श्वेताम्बर अपनी कटि पर वस्त्र धारण कर सकता था ?
इस विजय के उपलक्ष में श्री उदयप्रभसूरि ने भी अपने निम्नलिखित उद्गार अभिव्यक्त किये :
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भेजेऽवकीरिणतां नग्नः कीर्तिकन्थामुपार्जयन् । तां देवसूरिराच्छिद्य तं निर्ग्रन्थं पुनर्व्यधात् ॥
अर्थात् कीर्त्ति रूपी कन्था को उपार्जित कर नग्न आचार्य कुमुदचन्द्र ने अपनी नग्नता को ढंक लिया किन्तु देवसूरि ने उस कीर्ति कन्था की धज्जियां उड़ाकर पुनः उसे पूर्णतः नग्न बना दिया ।
प्रबन्ध चिन्तामरिण १०८ - १०६
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