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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
प्रतिवादी चालुक्यराज जयसिंह की राज्यसभा में उपस्थित हुए, जहां महाराजा ने घोषणा की कि दोनों पक्षों में से जो पक्ष शास्त्रार्थ में पराजित हो जायेगा, उस पक्ष को सदा के लिये अनहिलपुरपत्तन के विशाल गुर्जर राज्य की सीमाओं से बाहर चला जाना होगा। जो पक्ष विजयी होगा वही गुर्जर राज्य की सीमाओं में रह सकेगा, इस पण के साथ दोनों पक्षों के बीच विक्रम संवत् ११८१ की वैशाख शुक्ला पूर्णिमा के दिन पाटन में चालुक्य राज सिद्धराज जयसिंह की राजसभा में शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ । स्त्री मुक्ति के प्रसंग को लेकर इन दोनों महान् ताकिकों में परस्पर वाद हुआ। दिगम्बराचार्य श्री कुमुदचन्द्र ने अपने पक्ष को रखते हुए गम्भीर स्वर में कहा :-"किसी भी प्राणी की स्त्री भव में मुक्ति नहीं हो सकती। स्त्री वस्तुतः तुच्छ सत्त्वा अर्थात् निर्बल होती है। संसार में जितने भो तुच्छ सत्त्व वाले प्राणी हैं, उनकी मुक्ति नहीं हो सकती । इसका साक्षात् उदाहरण है बालक, निस्सत्व युवा पुरुष और अबला नारी । इन सब तथ्यों के आधार पर मैं अपना पक्ष रखता हूं कि तुच्छ सत्त्वा अथवा अबला होने के कारण स्त्री की उसी भव में मुक्ति कदापि नहीं हो सकती।"
दिगम्बराचार्य श्री कुमुदचन्द्र द्वारा इस प्रकार अपने पक्ष के प्रस्तुत किय जाने पर श्वेताम्बराचार्य देवसूरि ने इसके विपरीत अपना पक्ष रखते हुए घनरवगम्भीर स्वर में कहा :--'पौरुषपुज पुरुषों के समान ही स्त्री भी महासत्त्वा होतो है
और महासत्त्वा होने के कारण स्त्री भी उसी भव में मुक्त हो सकती है। इसका प्रमाण शास्त्रों में उपलब्ध है कि भगवान् ऋषभदेव की माता मरुदेवी ने अपने स्त्री भव में ही मुक्ति प्राप्त की। प्रवर्तमान अवसपिणी काल में सर्वप्रथम मुक्त होने वाली स्त्री माता मरुदेवी ही है, यह सर्वज्ञ प्रणीत शास्त्रों में स्पष्ट रूप से लिखा है। मेरे मित्र दिगम्बराचार्य श्री कुमुदचन्द्र ने जो यह हेतु रखा है कि स्त्री तुच्छ सत्त्वा प्राणी होती है इसलिये मुक्ति में नहीं जा सकती क्योंकि तुच्छ सत्त्व वाले जितने भी प्राणी हैं वे उसी भव में मोक्ष नहीं जा सकते जिस प्रकार कि बालक और स्त्री। दिगम्बराचार्य द्वारा प्रस्तुत किया गया यह तर्क नितान्त निराधार और तथ्यविहीन है। प्रत्यक्ष देखते हैं कि स्त्रियां महासत्त्वशालिनी होती हैं। इसका साक्षात् प्रमाण है विशाल गुर्जर राज्य की राजमाता महादेवी मयणल्लमा। महासती सीता, माता कुन्ती, सुभद्रा, आदि महासत्त्वशालिनी नारी रत्नों के अतुल साहस और अनुपम शौर्य के प्राख्यान न केवल हमारे धर्मशास्त्रों में ही, अपितु अन्यान्य धर्मों के प्रामाणिक रूप से प्रसिद्ध पार्षग्रन्थों में भी पड़े हैं । क्या हमारी इस न्यायवादिनी राज्यसभा में कोई एक भी ऐसा व्यक्ति है जो सीता, कुन्ती आदि महासतियों और गुर्जर राज्य की राज्यमाता मयल्लमा को तुच्छसत्त्वा सिद्ध करने की घृष्टता करने को उद्यत हो । मैं समझता हूं कि मेरे माननीय मित्र श्री कुमुदचन्द्र भी इस प्रकार का दुस्साहस नहीं कर सकते । जहां तक स्त्री मुक्ति का प्रश्न है--मरुदेवी माता की मुक्ति का आदर्श उदाहरण हमारे धर्मशास्त्रों में स्पष्ट रूप से उसी प्रकार देखा जा सकता
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