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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
वस्तुतः आप ही शिशु हैं क्योंकि आपने तो अभी तक कटिपट तो दूर कटिसूत्र ( करणकती अथवा कन्दोरा ) तक भी धारण नहीं किया है, शिशुवत् नितान्त नग्न ही हैं ।" प्राचार्य हेमचन्द्र के प्रसंगोपात्त इस उत्तर से राज्य सभा में अट्टहास गूंज उठा । महाराज जयसिंह ने तत्काल सभ्यों को शान्त करते हुए दोनों पक्षों से इस बात का परण करवाया कि यदि श्वेताम्बर शास्त्रार्थ में पराजित हो जाएं तो दिगम्बरत्व स्वीकार कर लें और यदि दिगम्बर पराजित हो जाएं तो वे पट्टण राज्य की सीमा से बाहर देश त्याग कर चले जाएं ।"
आचार्य कुमुदचन्द्र और देवसूरि के बीच हुए इस शास्त्रार्थ की ऐतिहासिकता को दिगम्बर परम्परा के विद्वानों ने भी स्वीकार किया है । 'जैन धर्म का प्राचीन इतिहास' द्वितीय भाग में इसके लेखक श्री परमानन्द शास्त्री ने इस सम्बन्ध में लिखा है :
" प्रस्तुत कुमुदचन्द्र वे हैं, जिनका गुजरात के जयसिंह सिद्धराज की सभा में विक्रम सम्वत् १९८१ में श्वेताम्बरीय विद्वान् वा दिसूरि देव ( वादिदेवसूरि ) के साथ वाद हुआ था ।"
वादिदेवसूरि के जीवन वृत्त को “प्रभावक चरित्र" और "प्रबन्ध चिन्ता - मरण" के आधार पर यथातथ्य रूप से प्रस्तुत करने के पीछे हमारा एकमात्र लक्ष्य यही है कि जिनशासन के प्रति प्रगाढ़ प्रीति और निष्ठा रखने वाले प्रत्येक पाठक को पुरातन काल की जैन संघों की स्थिति का भली-भांति परिचय प्राप्त हो जाय कि उस समय समाज में विषाक्त वातावरण एवं पारस्परिक विद्वेष किस प्रकार अपनी पराकाष्ठा को पार कर चुका था । इसी प्रकार के विद्वेषपूर्ण वातावरण के कारण जिनशासन की जो घातक क्षति हुई है, भविष्य में उसकी पुनरावृत्ति न हो ।
इनके प्राचार्यकाल में विक्रम सम्वत् १२०४ में खरतरगच्छ, विक्रम सम्वत् १२१३ में अंचल गच्छ, विक्रम सम्वत् १२२६ में सार्द्धपौर्णमीयक गच्छ उत्पन्न हुए । इनके स्वर्गस्थ होने के अनन्तर विक्रम सम्वत् २१५० में आगमिक गच्छ उत्पन्न हुआ ।
श्री वादिदेवसूरि बड़ गच्छ ( वृहद् गच्छ ) के महान् प्रभावक प्राचार्य थे । आपके गुरु श्री मुनिचन्द्रसूरि महान् तपस्वी थे । तपागच्छ पट्टावली में मुनिचन्द्रसूरि को श्रमण भगवान् महावीर का चालीसवां पट्टधर बताया गया है । इस पट्टावली में आपके बड़े गुरु भ्राता प्रजित देवसूरि को इसी पट्टावली में प्रभु महावीर का इकतालीसवां पट्टधर बताया गया है । आपके गुरु मुनिचन्द्रसूरि के गुरु भ्राता चन्द्रप्रभसूरि ने विक्रम सम्वत् १९४६ में पौर्णमीयक गच्छ की स्थापना की ।
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