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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
(४१) श्रीमुनि चन्द्र सूरिपट्टे एकचत्वारिंशत्तमः "श्री अजितदेव सूरिः " ॥४१॥
(पट्टावली समुच्चयः पृष्ठ १५३ व १५४) 'वृहद्गच्छ गुर्वावली' में वादिदेवसूरि को इकतालीसवां पट्टधर और आपके गुरु श्री मुनिचन्द्रसूरि को चालीसवां पट्टधर बताया गया है। तपागच्छ पट्टावली के उपर्युल्लिखित उद्धरण में देवसूरि के नाम से चौबीस शाखाएं प्रसिद्ध होने का उल्लेख है। उस उल्लेख से और वृहद् गच्छ गुर्वावली में मुनिचन्द्रसूरि के पश्चात् उनके पट्टधर वादिदेवसूरि का नामोल्लेख होने तथा तपागच्छ पट्टावली में मुनिचन्द्रसूरि के पश्चात् उनके पट्टधर के रूप में अजितदेव सूरि का उल्लेख होने से स्पष्टतः यह प्रमाणित होता है कि मुनिचन्द्रसूरि के पश्चात् उनके बड़े शिष्य श्री अजितदेवसूरि
और उनके दूसरे शिष्य वादिदेवसूरि से दो भिन्न-भिन्न शाखाएं प्रचलित हुईं। वृहद्गच्छ गुर्वावली' में इस गच्छ के इकतालीसवें पट्टधर वादिदेवसूरि के पश्चात् बयालीसवें पट्टधर से लेकर अडसठवें पट्टधर तक जो पट्टधरों के नाम दिये गये हैं, वे उपाध्याय धर्मसागर गणि द्वारा रचित 'तपागच्छ पट्टावली' में उल्लिखित इकतालीसवें पट्टधर से लेकर अठ्ठावनवें पट्टधर तक के नामों से नितान्त भिन्न हैं। इससे भी यही तथ्य प्रकाश में आता है कि मुनिचन्द्र के शिष्यों से दो भिन्न-भिन्न शाखाएं प्रचलित हुईं।
१. पट्टावली पराग संग्रह (पं० श्री कल्याणविजयजी महाराज कृत) पृष्ठ १३१ व २३२ । २. वही, पृष्ठ १४४ से १५५
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