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प्राचार्य अभयदेव मलधारी
प्राचार्य मलधारी 'अभयदेव' विक्रम की वारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध से लेकर पश्चिमार्द्ध के प्रथम दशक तक की बीच की अवधि के एक महान् प्रभावक आचार्य हुए हैं । आप कौटिक गरण के प्रश्नवाहन कुल की मध्यम शाखा के हर्षपुरीय नामक गच्छ के यशस्वी प्राचार्य थे । उत्तरवर्ती काल के कतिपय अपुष्ट उल्लेखों के अनुसार प्रापका विहार-क्षेत्र अति विशाल था। .
आपके जन्मकाल, जन्म स्थान, माता-पिता, कुल एवं दीक्षाकाल के सम्बन्ध में प्रकाश डालने वाली अद्यावधि कोई सामग्री उपलब्ध न होने के कारण कुछ भी नहीं कहा जा सकता। आप हर्षपुरीय गच्छ के प्राचार्य जयसिंहसूरि के शिष्य थे। आपके प्रशिष्य श्री श्रीचन्द्रसूरि द्वारा रचित मुनि सुव्रत चरित्र की प्रशस्ति के उल्लेखानुसार गुर्जरेश्वर सिद्धराज आपके त्याग और तप से अत्यन्त प्रभावित होकर आपके प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा भक्ति रखता था। आपका त्याग उच्च कोटि का था। अपने समय के श्रमण वर्ग में व्याप्त शिथिलाचार के उन्मूलन और स्व पर के कल्यारण के उद्देश्य से आपने विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने का दृढ़ निश्चय कर अपने वस्त्रों की सफाई की और शरीर तक की भी सफाई का ध्यान देना छोड़ दिया । फलतः आपका शरीर और पापके वस्त्र मल अर्थात् मैल से विवर्ण हो गये। आप की इस प्रकार की निस्पृहता, आपकी अपने शरीर और वस्त्रों के प्रति इस प्रकार की निर्ममत्व भावना से प्रभावित होकर गुर्जराधिपति सिद्धराज जयसिंह ने आपको मलधारी की उपाधि से विभूषित किया । कुछ विद्वानों का अभिमत है कि प्रापको मलधारी की उपाधि गुर्जरेश्वर सिद्धराज ने नहीं, अपितु उनके पूर्ववर्ती राजा कर्ण ने दी थी। इतिहासविदों ने परिपुष्ट ऐतिहासिक आधारों पर गुर्जरेश्वर कर्ण का शासनकाल विक्रम सम्वत् ११२६ से ११५१ तक का और सिद्धराज का राज्यकाल विक्रम सम्वत् ११५१ से १२०० तक का माना है । मलधारी प्राचार्य अभयदेवसूरि का प्राचार्य काल विक्रम सम्वत् ११३५ से ११६० के लगभग तक का अनुमानित किया जाता है। इस दृष्टि से यदि अभयदेवसूरि ने प्राचार्य पद पर अधिष्ठित होते ही विक्रम सम्वत् ११३५ के आसपास स्नान, वस्त्र-प्रक्षालन आदि की उस समय के भट्टारक चैत्यवासी प्रादि परम्परामों के साधु वर्ग में प्रचलित शिथिलाचार पूर्ण प्रवृत्ति का परित्याग कर विशुद्ध श्रमणाचार का पालन प्रारम्भ कर दिया हो तो बहुत सम्भव है कि गुर्जरेश्वर महाराज कर्ण ने उनकी इस त्याग वृत्ति से प्रभावित हो उनकी मैल मलाकीर्ण देहयष्टि को देखकर उन्हें मलधारी का विरुद प्रदान कर दिया हो । यदि उन्होंने विक्रम सम्वत् ११५१ के पश्चात् अपनी देहयष्टि
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