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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
श्रमण अपने शरीर और वस्त्रों को मैल से आच्छन्न रखते थे तो गुर्जरेश ने केवल अभयदेवसूरि को ही "मलधारी" के विरुद से क्यों विभूषित किया ?
हेमचन्द्रसूरि द्वारा रचित "जीव समास की वृत्ति" के अन्त में .......... एवं काले प्रवर्तमाने यमनियमस्वाध्यायध्यानानुष्ठानरतपरमनैष्ठिक पंडित-श्वेताम्बराचार्य-भट्टारक श्री हेमचन्द्राचार्येण पुस्तिका लिखिता श्री०" इस वाक्यांश को पढ़कर प्रत्येक सत्यान्वेषी के अन्तर्मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि हेमचन्द्रसूरि ने इसमें अपना परिचय देते हुए-श्वेताम्बराचार्य-भट्टारक श्री हेमचन्द्राचार्येरण इस पद द्वारा अपने आपको जो श्वेताम्बर भट्टारक बताया है, इसके पीछे क्या कोई रहस्य तो नहीं छुपा हुआ है ? इस ग्रन्थ माला के तृतीय पुष्प में ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर यह स्पष्ट कर दिया गया है कि देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के पश्चात् चैत्यवासी परम्परा, दिगम्बर भट्टारक परम्परा, श्वेताम्बर भट्टारक परम्परा, जिसका अवशेष श्रीपूज्य के रूप में अद्यावधि विद्यमान है, आदि अनेक द्रव्य परम्पराएं अस्तित्व में आईं और उनका वर्चस्व उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया।
इस प्रकार की स्थिति में इन उपरिलिखित तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर ऐसी आशंका उत्पन्न होती है कि मलधारी प्राचार्य अभयदेवसूरि कहीं भट्टारक परम्परा के ही आचार्य न रहे हों। वर्द्धमानसूरि द्वारा किये गये क्रियोद्धार एवं एक प्रकार की धर्मक्रान्ति के सूत्रपात के अनन्तर जो देशव्यापी धर्म जागरण की लहर तरंगित हो उठी थी और अनेक आत्मार्थी श्रमणों ने द्रव्य परम्पराओं का परित्याग कर विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करना प्रारम्भ कर दिया था, उसी प्रकार कहीं भट्टारक अभयदेवसूरि ने भी भट्टारक परम्परा के आचार-विचार का परित्याग कर दशवैकालिक सूत्र में वरिणत विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करना प्रारम्भ नहीं कर दिया था ? दशवैकालिक में श्रमणचर्या का एतद्विषयक उल्लेख इस प्रकार है :
उद्देसियं कीयगडं नियागमभिहडारिण य। राइभत्ते सिणाणे य गंध मल्ले य वीयणे ॥ २ ॥ सन्निही गिहीमत्ते य रायपिंडे किमिच्छए। संवाहणा दंत पहोयणा य संपुच्छरणा देह पलोयरणा य ।। ३ ।।
इन गाथाओं को पढ़कर कहीं अभयदेवसूरि ने भी भट्टारक परम्परा में प्रचलित स्नान वस्त्र प्रक्षालन आदि का परित्याग कर अपने शरीर और वस्त्रों को धोना बन्द न कर दिया हो। अपने शरीर और वस्त्रों की सुध-बुध भुला विशुद्ध श्रमणाचार के पालन में निरत अभयदेवसूरि के शरीर पर, वस्त्रों पर मैल का जमना स्वाभाविक ही था। अभयदेवसूरि के धूलि धूसरित मैल भरे गात्र और वस्त्रों को देख कर ही सिद्धराज जयसिंह ने उन्हें मलधारी के विरुद से अभिहित करना प्रारम्भ कर दिया हो ।
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