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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
सार्थ उनकी ओर आ रहा है । सूरिराट् और सन्त वृन्द के दर्शन करते ही सार्थवाह ने शकटों, अश्वों, ऊष्ट्रों, गजों और रथादि विविध वाहनों को रोक कर वहीं पड़ाव डाला और एषणीय अशन पानादि से सन्त वृन्द को प्रतिलाभित कर प्रभूत पुण्य का उपार्जन किया।
इस प्रकार प्रभावक चरित्र के उल्लेखानुसार देवसूरि के अतिशय से संघ पर आया हुआ एक प्राणापहारी परीषह तत्क्षण दूर हो गया।
प्राचार्य श्री देवसूरि ने प्रमाण नयतत्वालोक की रत्नाकरावतारिका नाम की टोका के ग्रन्थ रत्न की रचना कर जिनशासन के न्याय शास्त्र के भण्डार की उल्लेखनीय श्रीवृद्धि की।
इस प्रकार अपने पांडित्य, तर्क बल और प्रात्म बल से जिनशासन की महती प्रभावना कर प्राचार्य देवसूरि ने विक्रम सम्वत् १२२६ के श्रावण कृष्णा सप्तमी गुरुवार के दिन अपराह्न में भद्रेश्वर सूरि को अपना उत्तराधिकारी प्राचार्य नियुक्त कर अपनी ८३ वर्ष की आयु पूर्ण कर संलेखना संथारापूर्वक समाधि मरण का वरण कर स्वर्गारोहण किया। ८३ वर्ष की अपनी पूर्ण आयु में से आप ६ वर्ष तक गृहवास में, २२ वर्ष तक साधारण श्रमण पर्याय में और ५२ वर्ष तक प्राचार्य पद पर रहे।
देवसूरि को जैन वाङ्मय में सर्वत्र वादी विरुद से विभूषित किया गया है। उनको वादी का विरुद किसने प्रदान किया इस सम्बन्ध में प्रभावक चरित्र के निम्नलिखित दो श्लोकों से स्पष्टतः यही प्रकट होता है कि महाराज सिद्धराज जयसिंह की सभा में देवसूरि से पराजय स्वीकार करते हुए स्वयं प्रतिवादी दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र ने राज सभा के समक्ष देवसूरि को महान् वादी के विरुद से विभूषित किया था। वे श्लोक इस प्रकार हैं :
अशक्नुवन्निति प्रत्युत्तरे देवगुरोस्ततः ।
सवैलक्ष्यमथाहस्मानुत्तरः स दिगंबरः ॥२३६।। महाराज ! महान् वादी देवाचार्यः किमुच्यते।
राजाह वद निस्तन्द्रः कथयिष्यामि विस्मृतम् ।।२३७।। देवसूरि और दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र के बीच शास्त्रार्थ कितने दिन चला, इस सम्बन्ध में प्रभावक चरित्रकार ने कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है। एतद्वियक प्रभावक चरित्र के उल्लेख को देखने से पाठक को यही प्रतीत होता है कि सम्भवतः शास्त्रार्थ केवल एक दिन ही चला और वह भी कुछ ही घटिका पर्यन्त । इसके विपरीत आचार्य मेरुतुगसूरि ने विक्रम सम्वत् १३६१ की अपनी ऐतिहासिक कृति प्रबन्ध चिन्तामरिण में लिखा है :
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