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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड-२ ]
वादिदेवसूरि
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है जिस प्रकार से दर्पण में अपना मुख । जहां तक बालक की मुक्ति का प्रश्न है बालक अतिमुक्तक साधु ने श्रमण भगवान् महावीर का शिष्यत्व स्वीकार कर मुक्ति प्राप्त की। यह हमारे धर्मशास्त्रों में सुस्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है । इसके साथ ही यह देखा गया है कि अनेक स्त्रियां तो पुरुषों की अपेक्षा भी अत्यधिक महासत्त्वशालिनी होती हैं। महासत्त्वशालिनी होने के कारण ही अनन्त-अनन्त स्त्रियां अतीत में मुक्ति को प्राप्त कर चुकी हैं। वर्तमान में भी पंचमहाविदेह क्षेत्रों में मुक्त होती हैं और अनन्त भविष्यत् काल में भी अनन्त-अनन्त स्त्रियां स्त्री भव में ही मोक्ष को प्राप्त करती रहेंगी। मेरा यह पक्ष न केवल सबल युक्तियों से ही अपितु शास्त्रों द्वारा भी सम्यग् रूप से सुस्पष्टतः परिपुष्ट है।"
. दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र ने अपने प्रतिपक्षी देवसूरि द्वारा रखे गये पक्ष को वितथ सिद्ध करने की कोई सबल युक्ति न देख राज सभा के समक्ष प्रश्न किया :-- "क्या कहा ? क्या कहा ?"
महावादी देवसूरि ने दूसरी बार पुनः अपने पक्ष को उसी रूप में रखा । इस पर भी दिगम्बराचार्य ने फिर कहा :-"क्या कहा ? क्या कहा ?"
इस पर देवसूरि ने सिंह गर्जन के समान घनरवगम्भीर उच्च स्वर में अपने पक्ष को तीसरी बार पुनः राज्य सभा के समक्ष प्रस्तुत किया।
तीसरी बार देवसूरि द्वारा अपने पक्ष के प्रस्तुत किये जाने के उपरान्त भी उसका कोई समीचीन उत्तर मस्तिष्क में न आने पर किंकर्तव्यविमूढ़ की भांति कुमुदचन्द्र ने कहा :-"मेरे प्रतिवादी के इस कथन को कटित्र (पट्ट अथवा पट्टी) में लिख दिया जाय ।"
प्रमुख निर्णायक, राजसभा के सभासद् महर्षि उत्साह ने महाराज सिद्धराज जयसिंह के अभिवादनपूर्वक सभासदों को सम्बोधित करते हुए निर्णायक स्वर में कहा :- "दिगम्बराचार्य श्री कुमुदचन्द्र की वाणी वस्तुतः मुद्रित अर्थात् गूंगी हो गई प्रतीत हो रही है । श्वेताम्बराचार्य श्री देवसूरी ने दिगम्बराचार्य श्री कुमुदचन्द्र पर शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त कर ली है।"
महाराज सिद्धराज जयसिंह ने महर्षि उत्साह के कथन और सभी सभासदों की मुखमुद्रा से अभिव्यक्त अभिमत का अनुमोदन करते हुए तत्काल देवसूरि को विजयी घोषित किया और श्री केशव को जयपत्र लिखने का आदेश दिया।
चालुक्य राज के आदेश का तत्काल पालन किया गया और महाराजाधिराज सिद्धराज जयसिंह ने स्वयं अपने हाथ से वह जयपत्र देवसूरि को समर्पित किया।
जयपत्र लेते हुए संसार के सभी प्राणियों पर समभाव रखने वाले देवसूरि ने चालुक्यराज से निवेदन किया :-"महाराज ! शास्त्रार्थ में वादी की पराजय ही
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