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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
से पूर्णतः प्रभावित दृष्टिगोचर हो रहा है। इस प्रकार विचार कर देवाचार्य ने देवधर के प्रश्न के उत्तर में कहा :-"श्रावक ! वस्तुतः रात्रि के समय चैत्यों में स्त्रियों का आना जाना, नृत्य-गान आदि उचित नहीं है ।" ।
देवधर ने पुनः प्रश्न किया-"यदि वास्तविकता यह है तो रात्रि के समय चैत्यों में स्त्रियों के गमनागमन आदि को रोका क्यों नहीं जाता ?"
देवाचार्य ने अवशता प्रकट करते हुए उत्तर दिया- "आगन्तुक लाखों की . · संख्या में हैं, किस-किस को रोका जाय।"
इस पर श्रावक देवधर ने आश्चर्य एवं आक्रोश मिश्रित मुद्रा में कहा"भगवन् ! आप यह निर्णायक रूप में स्पष्ट बताइये कि जिस जिन-चैत्य में जिनेन्द्र प्रभु की आज्ञा नहीं चलती और जहां लोग जिनेश्वर की आज्ञा की अवहेलना करते हुए निरंकुश व्यवहार करते हैं, उसे जिनगृह कहा जाय अथवा जनगृह कहा जाय ? देवाचार्य ने प्रश्नभित मुद्रा में उत्तर दिया-"जहां साक्षात् जिनेश्वर भगवान् विराजमान दृष्टिगोचर होते हैं, उसे जिन मन्दिर कैसे नहीं कहा जाय ?"
देवधर ने दृढ़ स्वर में कहा-"भगवन् ! हम किसी की दृष्टि में भले ही मूर्ख हों पर इतना तो हम भी जानते हैं कि जिस घर में जिसकी आज्ञा नहीं चलती, वह घर उसका नहीं कहा जा सकता है। आश्चर्य की बात तो यह है कि आप यह सब जानते हुए भी इस जिनाज्ञा-विरुद्ध प्रवाह को रोक नहीं रहे हैं। रोकना तो दूर, उल्टे प्रकारांतर से आप इस प्रकार के असंगत एवं अनुचित प्रवाह की, इसके प्रचलन की पुष्टि कर रहे हैं । इसीलिये मैं आपको वंदनपूर्वक यह सूचित कर देता हूं कि जहां तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा चलती हो-अर्थात् जहां शास्त्र सम्मत प्रचलन हो, वही मार्ग मुझे अपनाना चाहिये ।" यह कहकर देवधर अपने साथी श्रावकों के साथ उठा और अपने साथ विक्रमपुर से आये हुए श्रावकों के साथ श्री जिनदत्तसूरि के पास अजमेर की ओर प्रस्थित हुआ।
कितने संक्षेप में सरल और सुयौक्तिक रीति से आयतन एवं अनायतन का विवेचन किया गया है । इस प्रकार के उपदेशों, इस प्रकार की सरल एवं जनमानस को.आन्दोलित कर देने वाली अपनी कृतियों के माध्यम से खरतरगच्छ के प्राचार्यों ने जैन संघ को सजग किया । परिणाम स्वरूप चैत्यवासी परम्परा के उपासक बहुत बड़ी संख्या में चैत्यवासी परम्परा का परित्याग कर सुविहित परम्परा के उपासक बनने लगे। इस प्रकार चैत्यवासी परम्परा के वर्चस्व को समाप्त करने में चैत्यवासी प्राचार्यों, साधुओं और उपासक-उपासिका के बहुत बड़े वर्ग को अपना अनुयायी एवं अनन्य उपासक बना कर चैत्यवास को क्रमशः क्षीण से क्षीणतर और निर्बल बनाने में जिनदत्तसूरि का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण योगदान रहा ।
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