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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २
जिनदत्तसूरि
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यह ऊपर बताया जा चुका है कि जिनदत्तसूरि का समय तथा उनके पूर्व का समय चर्चा का युग था । श्रायतन-ग्रनायतन विषयक चर्चायों के अवसर पर प्राय: पारस्परिक कटुता उग्र रूप धारण कर लेती थी । दूरदर्शी श्री जिनदत्तसूरि ने इस विषय में श्री जिनवल्लभसूरि के चरण चिह्नों का अनुसरण किया । उन्होंने चैत्यवासियों के साथ प्रत्यक्षतः इस प्रकार की चर्चाओं में उलझने की अपेक्षा जन-जन को एतद्विषयक वास्तविक ज्ञान कराने वाले बोधप्रद लघु ग्रन्थों की रचना करना सभी भांति श्रेयस्कर समझा । उपरिलिखित देवधर और चैत्यवासी देवाचार्य के सम्भाषण से स्पष्ट है कि जिनदत्तसूरि का इस प्रकार का वाङ्मय चैत्यवासी परम्परा के उन्मूलन और सुविहित परम्परा के पुनः प्रतिष्ठापन में बड़ा ही कारगर - लाभप्रद एवं तत्काल फलप्रदायी सिद्ध हुआ ।
चैत्यवासी परम्परा की प्राधारशिला को झकझोर कर अपनी जिन रचनाओं के माध्यम से जिनदत्तसूरि ने सुविहित परम्परा की चिर स्थायी सेवा की वे कतिपय रचनाएं इस प्रकार हैं
पदेशिक एवं प्राचार विषयक रचनाएं
१. संदेह दोहावली २. चच्चरी
३. उत्सूत्र पदोपघाटन कुलक
४. चैत्यवंदन कुलक
५. उपदेश धर्म रसायन
६. उपदेश कुलक
9. काल स्वरूप कुलक
८. गणधर सार्द्ध शतक ६. गरगहर सप्ततिका १०. सर्वाधिष्ठायी स्तोत्र
११. गुरु पारतन्त्र्य स्तोत्र
१२. विघ्न विनाशी स्तोत्र
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१३. श्रुतस्तव
१४. अजित शान्ति स्तोत्र
१५. पार्श्वनाथ मन्त्रगर्भित स्तोत्र
१६. महाप्रभावक स्तोत्र
प्राकृत
अपभ्रश
प्राकृत
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अपभ्रंश
प्राकृत
अपभ्रश
स्तुतिपरक रचनाएं
प्राकृत
11
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37
11
33
33
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12
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गद्य
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11
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गद्य
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१५०
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१५.
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