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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] जिनदत्तसूरि.
[ २७३ आचार्यपद प्रदान कर अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। वही आचार्य मुनि जिनचन्द्र आगे चलकर मणिधारी प्राचार्य जिनचन्द्रसूरि के नाम से विख्यात हुए।
उन दिनों जिनमन्दिरों के आयतन (विधि चैत्य) अथवा अनायतन (अविधि चैत्य) का विवाद यत्र तत्र सर्वत्र बड़े उग्र रूप से चल रहा था। जिनदत्तसूरि के "चच्चरी टिप्परणक' के पुनःपुनः अध्ययन-चिन्तन-मनन से शाह सण्हिया के पुत्र देवधर ने पायतन अनायतन के सम्बन्ध में पर्याप्त परिज्ञान प्राप्त कर लिया था। देवधर था तो चैत्यवासी परम्परा का उपासक किन्तु जिनदत्तसूरि के "चच्चरीटिप्पणक" का उसके मानस पर बड़ा प्रभाव पड़ा और उसका झुकाव खरतरगच्छ की ओर बढ़ने लगा। अपने अन्तर्मन में उठी आयतन-अनायतन विषयक हलचल को सदा के लिये समाप्त कर देने का उसने दृढ़ संकल्प किया और वह उस समय के अति प्रभावशाली अपने गुरु चैत्य वासी आचार्य देवाचार्य के पास अपने नगर के गण्यमान्य श्रावकों के साथ विक्रमपुर से प्रस्थित हो नागौर पहुंचा।
दशाब्दियों से जैन समाज पर एकाधिपत्य जमाये चली आ रही चैत्यवासी परम्परा के वर्चस्व का समृलोन्मूलन करने के अभियान में श्री वर्द्धमानसरि की परम्परा के प्राचार्यों ने अपनी कृतियों के माध्यम से किस-किस प्रकार की सीधीसादी सरल और सर्वजन ग्राह्य अकाट्य युक्तियों का आविष्कार किया, किस-किस प्रकार की प्रणालियाँ प्रचलित की, सर्वसाधारण में किस प्रकार के वातावरण का निर्माण किया, इन सब तथ्यों पर चैत्यवासो प्राचार्य देवाचार्य और उनके सजग श्रावक देवधर के बीच हुअा संवाद विशद प्रकाश डालता है। अतः सहृदय पाठकों के लाभ के लिये उस छोटे से परमोपयोगी प्रश्नोत्तरात्मक संवाद को यहां यथावत् रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है :
"दिग्दिगन्त से ख्याति प्राप्त देवाचार्य नागौर नगरस्थ अपने चैत्य में निवास करते थे। प्रसिद्ध श्रावक देवधर भी कतिपय श्रावकों के साथ वहां पहुंचा। उस समय व्याख्यान का समय हो गया था अतः चैत्यवासी आचार्य देवाचार्य व्याख्यान देने के लिए अपने चैत्य के व्याख्यान स्थल में पट्ट पर आसीन हुए। देवधर भी अपने साथी श्रावकों के साथ हाथ-पैर धोकर मण्डूप से मुखशुद्धि कर चैत्य में प्रविष्ट हा । देवधर ने देवाचार्य को वंदन किया । देवाचार्य ने उसके कुशल मंगल की पृच्छा की।
देवधर ने बिना कोई भूमिका बाँधे देवाचार्य से सीधा यही प्रश्न किया :"भगवन् ! जिनप्रभु के मन्दिर में रात्रि के समय स्त्रियों का आवागमन चलता रहता है, उसे किस प्रकार चैत्य कहा जाता है ?"
इस प्रश्न के सुनते ही देवाचार्य समझ गये कि निश्चय ही इसके श्रवणपुटों में जिनदत्ताचार्य का गुरु मंत्र प्रविष्ट हो चुका है। इसी कारण यह जिनदत्तसूरि
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