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श्री वादिदेवसूरि
विक्रम की बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में श्री वादिदेवसूरि और कलिकाल सर्वज्ञ के विरुद से अभिहित श्री हेमचन्द्राचार्य नामक दो महान् ग्रन्थाकार, उद्भट विद्वान् और जिन शासन के बहुत बड़े प्रभावक आचार्य हुए हैं। वादिदेवसूरि का जन्म श्री हेमचन्द्रसूरि से दो वर्ष पूर्व, दीक्षा दो वर्ष पश्चात् प्राचार्यपद पाठ वर्ष पश्चात् और स्वर्गारोहण तीन वर्ष पूर्व हुआ था। इस प्रकार ये दोनों प्राचार्य समकालीन और परस्पर एक-दूसरे से केवल पूर्णतः परिचित ही नहीं, अपितु पूरी तरह घुले-मिले हुए भी थे। वादिदेवसूरि ने अपने समय के उच्च कोटि के वाद-विद्यानिष्णात दिगम्बर आचार्य श्री कुमुदचन्द्र को अपहिल्लपुर पट्टण के महान् प्रतापी राजाधिराज चालुक्य वंशी सिद्धराज जयसिंह की राज्यसभा में, शास्त्रार्थ में पराजित कर न केवल गुजरात प्रदेश में ही अपितु समस्त भारत वर्ष में श्वेताम्बर परम्परा की प्रतिष्ठा को उच्चतम आसन पर प्रतिष्ठित किया ।
दूसरी ओर कलिकाल सर्वज्ञ के विरुद से विभूषित प्राचार्य हेमचन्द्र ने सिद्धराज जयसिंह के हृदय पर अपने त्याग, विराग और पाण्डित्य की छाप अंकित कर, उनके पश्चात् विशाल गुर्जर राज्य के सिंहासन पर आसीन होने वाले चालुक्यराज कुमारपाल को प्रतिबोधानन्तर जिनशासन का अग्रणी उपासक बनाकर तथा उच्च कोटि के विपुल साहित्य का निर्माण कर जिन शासन की गौरव-गरिमा को अतिशय रूप से अभिवृद्ध किया।
___ गुजरात प्रदेश के उस समय अठारह सौ (१८००) के नाम से प्रसिद्ध मण्डल के मड्डाहत (मद्दाहत) नामक नगर में नाग नामक एक प्राग्वाटवंशीय व्यापारी रहता था। उसकी पत्नी का नाम जिनदेवी था। पति परायणा जिनदेवी ने रात्रि में एक स्वप्न देखा कि पूर्णचन्द्र उसके मुख में प्रविष्ट हो रहा है। उन दिनों आचार्य मुनिचन्द्रसूरि मद्दाहत नगर में आये हुए थे। जिनदेवी प्रातःकाल अपने गुरु के दर्शन वन्दन के लिए गयी और उसने वन्दन के पश्चात् उन्हें अपने स्वप्न का वृत्तान्त सुनाते हुए जिज्ञासा प्रकट की कि “भगवन् ! इस स्वप्न का क्या फल है ?"
मुनिचन्द्रसूरि ने जिनदेवी की जिज्ञासा को शान्त करते हुए कहा-"वत्से ! चन्द्रमा के समान कान्ति वाला कोई जीव तुम्हारे उदर में अवतरित हुआ है। तुम्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी और तुम्हारा वह पुत्र आगे चलकर जन-जन के मन को आनन्दित करने वाला होगा।"
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